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दो आदमी ही रह गये हैं । कहीं वृद्धि और कहीं हानि तो होती ही है परन्तु सुन सात हज़ार हानि का है । किसी किमी जाति में संख्या बढ़ने से जैन समाज की संख्याहानि का निषेध नहीं किया जा सकता। जिन जातियों में विधवाविवाह का रिवाज है उनमें संख्या नही घटती है, या बढ़ती है। साथ ही जिन जातियों में विधवाविवाह का रिवाज नहीं है उनमें इतनी संख्या घटती है कि विधवाविवाह वाली जातियों की संख्यावृद्धि उस घटी का पूरा नहीं कर पाती ।
आक्षेप ( ग ) - हमारी दृष्टि में तो विधवाविवाह से बहन वाली संख्या निर्जीव है । (विद्यानन्द )
समाधान —— इसका उत्तर ता युगप अमेरिका आदि देशों क नागरिकों की अवस्था से मिल जाता है । प्राचीनकाल क व्यभिचारजान सुदृष्टि आदि महापुरुष भी ऐसे आक्षेपकों का मुँह तोड़ उत्तर देते रहे हैं। विशेष के लिये देखो (१८ ङ) आक्षेप (घ) विधुरत्व के दूर करने का उपाय शास्त्रा में है । साध्य के लिये श्रवध विधान हे श्रमाध्य के लिए नहीं । एक ही कार्य कही कर्तव्य और सफल होता है, कही अकर्तव्य और निष्फल ।
समाधान-विधुरत्व और वैक लिये एक ही विधान है. इस विषय में इस लब में अनेकवार लिखा जा चुका है । असाध्य के लिये आप का विधान नहीं है परन्तु असाध्य उसे कहते हैं जो चिकित्सा करने पर भी दूर न हो सके । वैधव्य नो विधुत्व के समान पुनर्विवाह से दूर हो सकता है, इसलिये वह असाध्य नहीं कहा जा सकता। एक ही कार्य कहीं कर्तव्य और कहीं कर्तव्य हो जाता है इसलिये कुमार कुमारियों के लिये विवाह कर्तव्य और विधुर विधवाओं के लिये अकर्तव्य होना चाहिये । पुनर्विवाह यदि विधु के लिये श्रकर्तव्य नहीं है