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हैं और उससे कहा जाता है कि तुम्हें सन्तान के लिये ही सम्भोग करना चाहिये । जब उसकी यह बात समझ में श्रा जाती है तब वह ऋतुस्नान के दिन ही काम सेवन करना है । इस तरह प्रति माम २६ दिन उसके ब्रह्मचर्यसं बीतने लगते हैं । श्राचार्यों ने परदारनिवृत्ति के बाद स्वस्त्री सम्भोग-निवृत्ति का भी यथासाध्य विधान बतलाया है। इसलिये कहा है "सन्तानार्थमृतावेव" । अर्थात् सन्तान के लिये ऋतुकालमें हो सेवन करे । इससे पाठक समझ गये होंगे कि सन्तान की बात भी कामलालसा की निवृत्ति को बढ़ाने के लिये है ।
श्राचार्यों ने जहां सन्तान के उत्पादन, लालन पालन श्रादि की बातें लिखी हैं उसका प्रयोजन यही है कि "जब तुम आंशिक प्रवृत्ति और आंशिक निवृत्ति के मार्ग में आये हो तो परोपकार आदि गौण उद्दे शो का भी खयाल रखो, क्योंकि ये कामलालसा की निवृत्ति रूप मुख्य उद्देश को बढ़ाने वाले है, साथ ही परोपकार रूप भी हैं ।" यदि अन्नप्राप्ति का मुख्य उद्देश्य सिद्ध हो गया है तो भी भूमा की प्राप्ति का गोरा उहेश्य भी छोड़ने योग्य नहीं है ।
आक्षेप (थ) - कामलालसा की निवृत्ति तो वैश्यासेवन, परस्त्रीसेवन से भी हो सकती है, फिर विवाह की आवश्यकता ही क्या ?
समाधान- - कामलालसा नाके जिस अंशकी निवृत्ति करना है, वह वेश्या सेवन और परस्त्रीसेवन ही हैं। इसी कामलालसा से बचने के लिये तो विवाह होता है। इससे विवाह का लक्ष्य श्रांशिक ब्रह्मचर्य या स्वदाग्सन्तोष कैसे सिद्ध हो सकता है ? इससे पाठक समझेंगे कि हमारे कथनानुसार विवाह मज़े के लिये नहीं है, परन्तु तीव्र चारित्र मोह के उदय को शांत करने के लिये पेयौषधि के समान कुछ भोग भोगने पड़ते हैं जैसा