________________
( १३१ ) मर्थता में ही गृहस्थ धर्म अङ्गीकार करना चाहिये । अमृतचंद्र जी और पाशाधरजी के श्लोक हम लिख चुके हैं । फिर भी आक्षपक का पूछना है कि प्रमाण बताओ ! खैर, और भी प्रमाण लीजिये।
सागारधर्मामृत के द्वितीय अध्याय का प्रथम श्लोक"त्याज्यानजन' आदि पहिले ही लिखा जा चुका है । यदि कन्या विवाहो न कार्यते' श्रादि उद्धरण प्राक्षप (3) में देखो।
'विषयसुखोपभोगेनैव चारित्रमाहोदयोद्रेकम्य शश्यप्रतीकारत्वात् तदद्वारेणेव तस्मादवात्मानमिव साधर्मिकमपि विषयेभ्यो व्युपरमयेत् । विषयेषु सुखभ्रान्निकर्माभिमग्नपाक जाम् । द्वित्वातदुपगेनवाजयेत्ताम्यवत्पगन् ।'
अर्थात्-चारित्रमोह का जब तीव उदय होता है तो विषयसुख के उपभोग से ही उसका प्रतीकार (निवत्ति) हो सकता है, इसलिये उमका उपभोग करके निवृत्त होवे और दूसरे को निवृत्त करे।
सुखभ्रान्ति हटाने का यह वक्तव्य विवाह की श्रावश्यक. ना के लिये कहा गया है । सौर, और भी ऐसे प्रमाण दिये जासकते हैं । निवृत्तिमार्गप्रधान जैनधर्म में निवृत्तिपरक प्रमाणों की कमी नहीं है । यहाँ पर मुख्य बात है ममन्वय की, अर्थात् जब विवाह का उद्देश्य कामलालम्मा की निवृत्ति अर्थात् आंशिक ब्रह्मचर्य है तब पुत्रोत्पत्ति का उल्लेख प्राचीन लेखकों ने क्यों किया ? नासमझ लोगों से तो क्या कहा जाय, परन्तु समझदार समझते हैं कि पुत्रोत्पत्तिका उल्लेख भी कामलालसा की निवृत्ति के लिये है। जैनधर्म प्रथम तो कहता है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य पालो । अगर इतना न हो सके तो विवाह करके प्रांशिक निवृत्ति (परदारनिवृत्ति) करो। परन्तु लक्ष्य तो पूर्ण निवृत्ति है इसलिये धीरे धीरे उसके निवृत्ति अंश बढ़ाये जाते