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पाँचों पाप कर सकता है, कुमारीविवाह कर सकता है, तब विधवाविवाह भी कर सकता है ।
आक्षेप ( उ ) - विधवाविवाह इसीलिए अधर्म नही हैं कि वह विवाह है बल्कि इस लिए अधर्म है कि श्रागम विरुद्ध है । "कोई प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नही है" यह लिखना सर्वथा श्रसङ्गत और श्रज्ञाननापूर्ण हैं । विवाहको निवृत्त्यात्मक मानना भी व्यर्थ | अगर निवृत्त्यात्मक होता तो पाँचवें गुणस्थान के भेदोंमें निवृत्तिरूप ब्रह्मचर्य प्रतिमाकी श्रावश्यकताही क्या थी ? समाधान - विधवाविवाह श्रागमविरुद्ध नही है, यह हम सिद्ध कर चुके है और आगे भी करेंगे । यहाँ हमारा कहना यही हैं कि अगर विवाह अधर्म नहीं है तो विधवाविवाह भी
धर्म नहीं है। अगर विधवाविवाह अधर्म है तो विवाह भी अधर्म है। सच पूछा जाय तो जैनधर्म के अनुसार कोई भी प्रवृत्त्यात्मक कार्य धर्म नहीं है । क्योंकि धर्म का मतलब है रत्नत्रय या सम्यक्चारित्र । सम्यक्चारित्रका लक्षण शास्त्रकारों ने " वाह्याभ्यन्तर क्रियाओं की निवृत्ति" किया है: जैसे कि"संसार कारण निवृत्तिम्प्रत्यागुर्णस्य ज्ञानवतः वाह्याभ्यन्तर क्रिया विशेषां परमः सम्यक्चारित्रम्" ( राजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि )
भवहेतु प्राणाय वहिरभ्यन्तरक्रिया
विनिवृत्तिः परं सम्यक् चारित्रम् ज्ञानिनां मतम् । - श्लोक वार्तिक । बहिरअंतर किया रोहो भवकारण पणासटुम् । गाणिस्स जंजिरणुत्तं तं परमम् सम्मचारितम् ॥
द्रव्यसंग्रह | चरणानुयोग शास्त्रों में भी इसी तरह का लक्षण है
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