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देता, किन्तु कामलालसा की निवृत्ति पर जोर देता है । पूर्ण निवृत्ति में असमर्थ होने पर प्रांशिक निवृत्ति के लिये विवाह हैं । उससे सन्तान आदि की भी पूर्ति हो जाती है । परन्तु मुख्य उद्देश्य तो कामवासना की निवृत्ति ही रहा । अमृतचंद्र के पद्योंने यह विषय बिलकुल स्पष्ट कर दिया है । फिर भी श्रक्षेपक को पद्यों की उपयोगिता समझ में नहीं श्राती । ठीक हैं, समझने की अक्ल भी तो चाहिये ।
आक्षेप (घ ) – विवाहको गृहस्थाश्रमका मूल कहकर धर्म, अर्थ, काम रूप तो नियत कर दिया, परन्तु इससे आप हाथ थप्पड़ खाली । जब काम गृहस्थाश्रम रूप है तब उस की शान्ति को ? काम शान्ति स तो गृहस्थाश्रम उड़ता है | काम निवृत्तिको धर्म और प्रवृत्ति को काम कहना कैसा ? एक विषय में यह कल्पना क्या ? और अर्थ इस का साधक क्या ? फल तो विवाह के तीन हैं, उलटा अर्थ साधक क्यों पड़ा ? साध्य की साधक बनादिया ? ( श्रीलाल )
समाधान - यहाँ तो श्राक्षेपक बिलकुल हक्का बक्का हो गया है । इसलिये हमारे न कहने पर भी उसने काम की गृहस्थाश्रमरूप समझ लिया है। काम की पूर्णरूप में शान्ति हो जाय ना गृहस्थाश्रम उड़ जायगा और मुनिश्राश्रम श्रजायगा । अगर काम की निवृति ज़ग भी न हो तो भी गृहस्थाश्रम उड़ जायगा, क्योंकि ऐसी हालत में वहाँ व्यभिचारादि दोषों का दौरदोग हो जायगा । अगर काम की प्रांशिक निवृत्ति हो अर्थात् परदार- विषयक काम की निवृत्तिरूप स्वदार सन्तोष हो तो गृहस्थाश्रम बना रहता है। आक्षं एक ऐसा जड़बुद्धि *
* श्राक्षेपकने ऐसे ही कटुक और एक वचनात्मक शब्दों का जहाँ तहाँ प्रयोग किया है: इसलिये हमें भी " शठम् प्रति