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अलीटस, उत्तरी एशिया, टहीटी, मैकरोनेशिया, कैएड्रोन आदि देश और द्वीपों के निवासियों में भी पाये जाते हैं। इसलिये जो लोग लोकलजा और लोकाचार की दुहाई देकर कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करना चाहते हैं वे मूर्ख हैं। हमारे कूपमण्डूक पण्डित बार बार चिल्लाया करते हैं- "क्योंजी, ऐसा भी कहीं होता है ?" उन्हें जानना चाहिये कि यह "कहीं" और 'लोक' तुम्हारे घर में ही सीमित नहीं हैं। 'कहीं' का क्षेत्र व लोक' बहुत बड़े और विचित्र हैं, और उन्हें जानने के लिये विस्तृत अध्ययन की ज़रूरत है। लोकाचार, क्षेत्र काल की अपेक्षा विविध और परिवर्तनशील है, इसलिये उस को कसोटी बनाना मूर्खता है। हम तो कहते हैं कि अगर विधवाfaare धर्मविरुद्ध है तो वह लोकलज्जा का विषय हो या न हो, वह त्यागने योग्य है; और अगर वह धर्मविरुद्ध नहीं है तो लोगों के बकवाद की चिन्ता न करके उसे अपनाना चाहिये । धर्मानुकूल समाजरक्षा और न्याय के लिये अगर लोकलज्जा का सामना करना पड़े तो उसको जीतना परिग्रह-विजय के समान श्रेयस्कर है ।
इसके बाद पुनर्विवाहिताओं के विषय में श्रक्षेपक ने जो शब्द लिखे हैं वे धृष्टता के सूत्रक हैं। अगर पुनर्विवाहिता के तीसरा चौथा और जार पुरुष होना भी सम्भव है तो पुनविवाहित पुरुष के तीसरी चौथी पाँचवीं तथा अनेक रखैल माशूकाएँ होना सम्भव है। इस तरह पुनर्विवाह करने वालाआक्षेपक के कथनानुसार- भँडुआ है । श्रक्षेपक की सम्भावना का कुछ ठिकाना भी है। एक साथ हज़ारों स्त्रियाँ रखने वाला पुरुष तो सन्तोषी माना जाय और पुनर्विवाह करके एक ही पुरुष के साथ रहने वाली स्त्री असन्तुष्ट मानी जाय, यह आक्षेपक को अन्धेर नगरी का न्याय है । पाठक देखें कि