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( 35 ) है । कुन्ती का पाराडु के साथ पहिले गान्धर्वविवाह हो चुका था । बाद में उस अधर्मदोष को दूर करने के लिये नहीं, किंतु अपनी कुमारी कन्या का विवाह करना माता पिता का धर्म है इस नीति वाक्य को पालने के लिये उनने अपनी कमारीकन्या कुन्ती का विवाह किया। गान्धर्व विवाह के अधर्म के दोष को दूर करने के लिये उन्हें कुन्ती का विवाह नहीं करना पड़ा, किन्तु पागडु को पात्र चुनना पड़ा । इसलिये विवाह व्यभिचार-दोष को दूर करने का श्रव्यर्थ साधन नहीं है। (विद्यानन्द)
समाधान-आक्षेपक ने यहाँ पर बड़ा विचित्र प्रलाप किया है । हमने कहा था कि विवाह के पहिले अगर किसी कमारी से सम्भोग किया जायगा नो व्यभिचार कहलायगा: अगर विवाह के बाद सम्भोग किया जायगा तो व्यभिचार न कहा जायगा। मतलब यह कि विवाह स व्यभिचार दोष दूर होता है । इस वक्तव्ग का उत्तर धाक्षपक से न बना । इसलिये उनने कहा कि विवाह के पहिले किसी कमारी के साथ संभोग करना व्यभिचार ही नहीं है। तय तो पंडित लोग जिस चाहे कुमारी लड़की के साथ संभोग कर सकते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह व्यभिचार नहीं है। तारीफ़ यह है कि व्यभिचार न मानने पर भी इसे अधर्म मानते हैं। व्यभिचार तो यह है नहीं, बाकी चार पापों में यह शामिल किया नहीं जा सकता, इसलिये अब फोनमा अधर्म कहलाया ? प्राक्षेपक ने गान्धर्वविवाद के लक्षण में भूल की है। प्रवीचार करना विवाह का अन्यतम फल है, न कि विवाह । गांधर्व विवाह में वर कन्या एक दूसरे से प्रतिज्ञाबद्ध होजाते है, तब प्रवीचार होता है । विवाह के पहिले पाण्डु और कुन्ती का जो संसर्ग हुअा था वह व्यभिचार ही था। अगर वह व्यभिचार न होता तो उस संसर्ग से पैदा होने