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कि पुरुषममाज का और स्त्रीसमाज का अधःपतन हो रहा है। इस समय दोनों का माध्यम समान होना चाहिये । इसके लिये पुरुषों को बहुपत्नीत्व की प्रथा का त्याग करने की और स्त्रियों का विधवाविवाह की ज़रूरत है।
(५) जनसंख्या की दृष्टि से समाज का माध्यम हानि. काग है । भारतवर्ष में स्त्रियों की संख्या कम है, पुरुषों में बहुविवाह होता है, फिर फ़ीसदी १७ स्त्रियाँ असमय में विधवा हो जाती है. इमलिय अनक पुरुषो का, बिना स्त्री के रहना पड़ता है। उनमें से अधिकांश कुमार्गगामी हो जाते हैं। अगर विधवाविवाह का प्रचार हो तो यह कमी पूरी हो सकती है तथा अनेक कुटुम्बा का सर्वनाश हाने से भी बचाव हो सकता है।
(६) बहुपतित्व और बहुपत्नीत्व की प्रथा, सीमित होने पर इतनी विस्तृत है कि उममें विषय वामनाओं का ताराहव हो सकता है। सामूहिक रूपमें इसकाापालन ही नहीं होसकना इसलिये ये दोनों प्रथाएँ त्याज्य है । किन्तु अपतित्व और अपस्नीत्व की प्रथा इतनी संकुचित है कि मनुष्य उममें पैर भी नही पसार मकता । और सामूहिक रूपमें इसका पालन भी नहीं होमकता । इसलिये कुमार और कुमारियों का विवाह कर दिया जाता है । अपनत्व की प्रथा से जिस प्रकार कुमारियो की हानि हो सकती है वही हानि विधवाओं की हा रही है इसलिये उनके लिये भी कुमारियों के समान एकपतित्व प्रथा की आवश्यकता है।
जबकि बहुपत्नीत्व और बहुपतित्व नक ब्रह्मचर्यायुक्त की सीमा हे तब एक पतित्वरूप विधवाविवाह की प्रथा, न सो अणुवनकी विरोधिनी होमकती है और न आचार्यों की प्राशाओकी प्रामाके प्रतिकुल हो सकी है । यहाँ पाठक विधवा