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हे कि 'विधवा-विवाह घोर पाप है, क्योंकि स्त्रियाँ जूँठी थाली के समान है। अब वे किसी के काम की नहीं'। दोनों बहिनों को यह अपमान चुपचाप सहलेना पडता है, जिस में पहिलो बहिन तो ब्रह्मचर्य से जीवन बिताती है और दूसरी वैधव्यका ढोंग करती हैं। उसकी वासनाएँ प्रगट न हो जायें, इसलिये वह विधवा-विवाद वालोको गालियाँ देती हैं। इसलिये पंडित लोग उसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं । परन्तु वह बेचारी अपनी वासनाओं को दमन नहीं कर पाती, इसलिये व्यभिचार के मार्ग में चली जाती है । फिर गर्भ रह जाता है । अब वह सोचती हैं कि विधवाविवाहवालों को मैंने आज तक गालियाँ दी हैं, इसलिये जब मेरे बच्चा पैदा होगा तो कोई क्या कहेगा ? इस लिये वह गर्भ गिराने की चेष्टा करती है । गिर जाता है तो ठीक, नहीं गिरता है तो वह पैदा होते ही बच्चेको मारडालती है । वह बीच बीच में पुनर्विवाह का विचार करती हैं, लेकिन पण्डितों का यह वक्तव्य याद श्राजाता है कि "विधवाविवाह सेतो जिनमार्ग दूषित होता है लेकिन व्यभिचार या भ्रूणहत्या में जिनमार्ग दूषित नहीं होता", इसलिये वह व्यभिचार और भ्रूणहत्या की तरफ झुक जाती हैं । सुधारक बहिन को तो ऐसा मौका ही नहीं है जिससे उसे अपना दाम्पत्य छिपाना पढ़े और भ्रूणहत्या करना पड़े । उसके अगर सन्तान पैदा होगी तो वह हर्ष मनायगी जबकि स्थितिपालक बहिन हाय २ करेगी और उसकी हत्या करने की तरकीब सोचेगी। इससे पाठक समझ सकते हैं कि हत्याग मार्ग कौन है और दया का मार्ग कौन है ?
हम यहाँ एक ही बात रखते हैं कि कोई स्त्री विधवाविवाह और गुप्त व्यभिचार में से किस मार्ग का अवलम्बन करना चाहती है । सुधारक लोग विधवाविवाह की सलाह