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( ४७ ) बगबर हो गई ? मान्यता के लिये सिर्फ सर्वश्रेष्ठना नहीं देखी जाती, परन्तु यह भी देखा जाता है कि वह श्रेष्ठता किस विषय में है। धनञ्जय एक अच्छे पण्डित या कवि थे तो क्या वे पूज्यपाद
और अकलङ्क के समान प्राचार्य ओर तत्व भी थे, जिस से मिद्धान्त के विषय में उन का निर्णय माना जाय ?
खोर! अब हम मूल विषय पर आते हैं। अमरकोषकारने पुनर्भ शब्द का अर्थ किया है "दुबाग विवाह कराने वाली स्त्री" | पूनों का दमग नाम दिधिपू भी है। जिस ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्य की स्त्री, पुनर्म होती है उसे अग्नेदिधिष कहते हे ( इस से यह भी सिद्ध होता है कि पहिले ज़मान में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य में भी स्त्री पुनर्विवाह होता था)। अमरकोपकार ने पूनर्भ का 'दुबाग विवाह करने वाली स्त्री' अर्थ ना किया, परन्तु उस व्यभिचारिणी नहीं माना । व्यभिवारिणी के उन्होंने पुंश्चली, धर्षिणी, बन्धकी, असनो, कुलटा, इत्वरी श्रादि नाम ना बताय परन्तु पुन नाम नहीं बताया। जो कोपकार पुनर्भ शब्द का उपयक्त अर्थ करता हे वह तो व्यभिचारिणी उस लिखता नहीं, किन्तु जिम्मन ( धनञ्जय ने ) पुनर्भ शब्द का अर्थ ही नहीं बताया वह उस व्यभिचारिणी कहता है ! इसम मालूम होता है कि अमरकापकार के अर्थ से धनञ्जय का अर्थ बिलकुल जुदा है। अमरकोपकार के मनसे पुनर्भ शब्द का अर्थ है 'दुबाग विवाह करने वाली स्त्री' और धनञ्जय के मत से पुनर्भू शब्द का अर्थ है व्यभिचारिणी। ये तो एक शब्द के दो जुदं जुदे अर्थ हुए । इससे दुबाग विवाह करने वाली स्त्री व्यभिचारिणी कम मिद्ध हुई ? गो शब्द का अर्थ गाय भी है, स्वर्ग भी है, पृथ्वी भी है, इत्यादि और भी अनेक अर्थ हैं। अब कोई कहे कि अमुक अादमी मर कर स्वर्ग गया, नो क्या इस का यह अर्थ होगा कि वह गाय में गया ?