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विवाह से बस्त्री बन जाती है । उसी प्रकार विधवा भी विवाह से स्वम्त्री बन जाती है । श्रीलालजी ने व्यभिचार की उपयक तीन श्रेणियाँ स्वीकार की, जब कि विद्यानन्द उस के विरुद्ध हैं। हर बान के उत्तर में दोनों प्राक्षेपक यही कहते हैं कि "विधवाविवाह धर्मविरुद्ध है, कन्या का ही विवाह होता है आदि" । इन सब बातों का वृष विवेचन हो चुका है।
आक्षेप (क)-विधवा कभी भी दूसग पनि नहीं करेगी जबतक कामाधिक्य न हो । लोकलजा श्रादि को तिलाञ्जली दे जो दूसरे पति को करने में नहीं हिचकती, वह उस दूसरे करे हुए पति में सन्लाष रक्खे, असम्भव है। अतः उसका तीमग चौथा श्रीर जार पुरुष भी होना सम्भव है। अतएव वह भी एक प्रकार वेश्यामंगम जैसा हुा । ( श्रीलाल ) ।
समाधान-एक मनुष्य अगर प्रतिदिन आध सेर अनाज खाता है, इस तरह महीने में १५ सेर अनाज खाने पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह बड़ा अगोरी हे, पन्द्रह पन्द्रह सेर अनाज खा जाता है । इसी प्रकार एक स्त्री अगर एक समय में एक पति रखती है और उसके स्वर्गवास होने पर अपना दूसरा विवाह कर लेती है तो उसे अनेक पति वाली नही कह सकते जिससे उसमें कामाधिक्य माना जावे । एक माथ दो पति रखने में या एक साथ दो पत्नी रखने में कामाधिक्य कहा जा सकता है । इस दृप्रिसे पुरुषों में ही कामाधि. क्य पाया जा सकता है।
दूसरी बात यह कि श्रादेपक कामाधिक्य का अर्थ ही नहीं समझा। मानलीजिये कि एक स्त्री ने यह प्रतिज्ञा ली कि महीने में सिर्फ एक दिन (ऋतु काल के बाद ) काम सेवन काँगो । वह इस प्रतिक्षा पर दृढ़ रही। ऐसी हालत में अगर वह विधवा हो जाये और फिर विवाह करले और इसके बाद