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ढूंढने के लिये अपने पुनर्विवाह के लिये स्वयम्बर किया था । माना कि उसे दूसरा विवाह करना नहीं था, परंतु इससे यह अवश्य ही सिद्ध होता है कि उस समय पुनर्विवाह का रिवाज था और राजा लोग भी उसमें योग देते थे । उपर्यु रक्त विवेचन से इतनी बात सिद्ध हुई कि चतुर्थकाल में अजैन लोगों में स्त्रियों के पुनर्विवाह का रिवाज था । अब हम आगे बढ़ते हैं। चतुर्थ काल में देव भगवान के बाद शांतिनाथ भगवान के पहिले प्रत्येक तीर्थकर के अंतराल में ऐसा समय आता रहा है जब की जैन धर्म का विच्छेद हो जाता था । ऐसे समय में जैनों के धार्मिक विश्वास के अनुसार विधवाविवाह, नियोग आदि अवश्य होते थे । धर्मविच्छेद का वह अंतराल असंख्य वर्षों का होता था । इससे करोड़ों पीढ़ियाँ इसी तरह निकल जाती थीं और इतनी पीढ़ियों तक विधवा विवाह, नियोग आदि की प्रथा चलती रहती थी । फिर इन्हीं में जैनी लोग पैदा होते थे अर्थात् दीक्षा लेकर जैनी बनते थे । इस लिये जैनी भी इस प्रथा से अछूते नहीं थे। दूसरी बात यह है कि दीक्षान्वय क्रिया के द्वारा प्रजनों को जैनी बनाया जाता था । इस तरह भी इस प्रथा की छूत लगती रहती थी। जैन शास्त्रों के अनुसार ही जब इतनी बात सिद्ध हो जाती है तब विधवा विवाह का प्रथमानुयोग में उल्लेख न होना सिर्फ़ आश्चर्य की बात रह जाती है; विशेष महत्व की नहीं । परंतु ज़रा और गम्भीर विचार करने पर इसकी श्राश्चर्यजनकता भी घट जाती है और महत्व तो बिलकुल नहीं रहता |