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समस्त स्त्रियों का त्याग कर के एक विधवा में काम लालसा को बद्ध करने से भी काम लालसा मर्यादित न मानी जावे, इम्म नासमझो का कुछ ठिकाना भी है ? श्राक्षेपक के कथनानुसार जैसे कन्या 'तुम ही पुरुष' से मैथुन करने की प्रतिज्ञा करती है, उसी तरह पुरुष भी ना "तुमही कन्या" से मैथन करने की प्रतिज्ञा करता है। पुरुष ना विधुर हो जाने पर या सपत्नीक होने पर भी अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करता रहे-फिर भी उसको 'तम ही कन्या की प्रतिज्ञा बनी रहे
और स्त्री. पति के मर जाने के बाद भी किसी एक पुरुप से विवाह को नो इनने में ही 'तम ही पुरूप' वाली प्रतिज्ञा नष्ट हो जावे ! बाहरे 'मही'!
यह 'तुम ही' का 'ही' तो बड़ा विचित्र है जो एक तरफ तो सैकड़ों बार मारे जाने पर भी बना रहता है और दमगे नरफ ज़रा मा धक्का लगते हो ममाप्त हो जाता है ! क्या श्राक्षे. पक इस बात पर विचार करेगा कि जब उसके शब्दों के अनु. सार ही स्त्री और पुरुष दोनों की प्रतिज्ञा यावज्जीव थी ता पुनर्विवाह से स्त्री, प्रतिज्ञाच्युत क्यों कही जाती है और पुरुष क्यों नहीं कहा जाता है ? यहाँ प्राक्षेपक को अपने 'यावज्जीव' और 'ही का बिलकुल व्याल ही नहीं रहा। इसीलिये अपनी धुन में मस्त होकर वह इक तरफा डिगरी देता हुआ कहता है
आक्षेप ( ए ---जव यावज्जीव की प्रतिज्ञा कन्या करती है तो फिर पनि के मर जाने पर वह विधवा हुई तो यदि पुरुषा. न्तर ग्रहण करती है तो अकलदेव प्रणीत तक्षरण से उसका विवाह नहीं कहा जा सकता । वह व्यभिचार है।
समाधान-ठीक इसी तरह या क्षेपक के शब्दानुसार कहा जा सकता है कि जब यावज्जीव की प्रतिज्ञा पुरुष करता हैं तो फिर पत्नी के मर जाने पर वह विधुर हुआ । सो यदि