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( ३१ ) विधवाविवाह से महमत न थे; परन्त जब विधवाविवाह का वे खण्डन नहीं करते और विधवाविवाह आदि के समर्थक वाक्य को उद्धत करते हैं तो मूर्ख से मर्ख भी कह सकता है कि सोमदेव जी विधवाविवाह के पक्षपाती थे। दूसरी बात यह है कि स्मृति शब्द से अजैनों के धर्मशास्त्र ही ग्रहण नहीं किये जा सकते। जैनशास्त्र भी श्रति म्मति आदि शब्दों से कहे गये हैं, जैसाकि आदिपुगण के ४४ वे पर्व में कहा गया है
सनाननोऽस्ति मार्गोऽयम् श्रतिस्मृनिष भाषितः । विवाहविधि भेदेषु वरिष्ठोहि म्वयंवरः ॥४४॥३२॥
यहाँ पर जैन शास्त्रों का उल्लेख अनि स्मृति शब्द मे हुआ है। और भी अनेक स्थानों पर ऐसा ही शब्द व्यवहार देखा जाता है। मतलब यह कि नीतिवाक्यामृत में जो स्त्री के पुनर्विवाह का समर्थक वाक्य पाया जाता है उससे सोमदेव जी तो पुनर्विवाह समर्थक ठहरते ही हैं, साथ ही अन्य जैनाचार्यों के द्वाग भी इसका समर्थन होता है। ऐसे सोमदेवाचार्य के यशस्तिलक के श्लोक में विधवाविवाह का विरोध सिद्ध करने की कुचेष्टा करना दुःसाहस नहीं तो क्या है ?
पाठक अब जग अर्ककीर्ति के वाक्य पर विचार करें। जवसुलोचनाने जयकुमार को वर लिया तब अर्ककीनिक मित्र दुर्मर्षण ने अर्ककीर्ति को समझाया
रत्नं ग्लेष कन्येव नत्राप्येव कन्यका । तत्त्वां स्वगृहमानीय दोष्ट्य पश्यास्य दुर्मतेः ॥४४॥५॥
रत्नों में कन्यारत्न ही श्रेष्ठ है; उसमें भी यह कन्या (पाठक यह भी बयाल रक्खे कि जयकुमार का वर तेने पर भी सुलोचना कन्या कही जा रही है) और भी अधिक श्रेष्ठ है । इसलिये तुम उसे अपने घर लाकर उस दुर्बुद्धि की दुष्टता देखा (बदला लो) ।