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कारण है तो वह सिद्धों में भी होना चाहिये; क्योंकि उन के भी निश्चय सम्यक्त्व है । परन्तु सिद्धों में रागादि परिणति न होने से सराग सम्यक्त्व हो नहीं सकता । तब वह उपादान कारण कैसे कहलाया ? यदि व्यवहार निश्चय को पूर्वोत्तर पर्याय मान कर उपादान उपादेय भाव माना हो तो दोनों का साहचर्य ( साथ रहना ) बतलाना व्यर्थ हैं। तथा इस दृष्टि से तो सम्यक्त्व के पहिले रहने वाली मिध्यात्व पर्याय भी उपादान कारण कहलायगी । तत्र सम्यक्त्व की उपादानता में महत्व ही क्या रह जायगा ? खैर, हमारा कहना तो यही हैं कि विधवाविवाह निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यtra के प्रशमादि गुणों के विरुद्ध नहीं है । इसलिये व्यवहार सम्यक्त्व की दुहाई देकर भी उस का विरोध नहीं किया
जा सकता ।
आक्षेप ( ज ) - विवाहों की भ्रष्ट प्रकार की संख्या से वाह्य होने के कारण और इसीलिये भगवन् प्रतिपादित न होने के कारण क्या श्रास्तिक्य सम्यग्दृष्टि विधवाविवाह को मान्य ठहरा सकता है ?
समाधान-विवाह के आठ भेदों में तो बालविवाह, वृद्ध विवाह, युवतीविवाह, सजातीयविवाद, विजातीयविवाह, अनुलोमविवाह, प्रतिलोम विवाह, सगोत्र विवाह, विगोत्र विवाह, कुमारीविवाह, विधवाविवाह, श्रादि किसी नाम का उल्लेख नहीं है; तब क्या ये सब श्रास्तिक्य के विरुद्ध हैं ? तब तो कुमारी विवाह भी श्रास्तिक्य के विरुद्ध कहलाया, क्योंकि आठ भेदों में कुमारी विवाह का भी नाम नहीं है । अगर कहा जाय कि कुमारीविवाह, सजातीय विवाह श्रादि विवाहों के उपर्युक्त आठ आठ भेद हैं तो बस, विधवाविवाह के भी उपर्युक्त आठ भेद सिद्ध हुए। जैसे कुमारीविवाह