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[ख] इम ही विचार से कि विधवाविवाह की इज़ाज़त जैन सिद्धांत व हिन्दू शास्त्र नहीं देता। हिन्दू शास्त्रों में तो अथर्ववेद व स्मृ तियों में पुनर्विवाह का स्पष्ट कथन है । जैन सिद्धान्त द्वारा यह सिद्ध है या प्रसिद्ध इस प्रश्न को माननीय बैरिटर चम्पतराय जी ने उठाया था। उसका समाधान 'सव्यसाची' महोदय ने बड़ी ही अकाट्य व प्रौढ़ यक्तियों के द्वारा देकर यह सिद्ध कर दिया था कि विधवाविवाह कन्या विवाह के समान है व इससे गृहधर्म में कोई बाधा नहीं आती है। यह सब समाधान 'जैनधर्म और विधवाविवाह' नामक दै कृ में प्रकाशित हो चुका है। इस समाधान पर पण्डित श्रीलालजी पाटनी अली. गढ़ तथा पं० विद्यानन्द शर्मा ने आक्षेप उठाए थे-उनका भी समाधान उक्त सव्यसाचीजी ने 'जैन जगत' में प्रकाशित कर दिया है । वही सब समाधान इस पुस्तक में दिया जाता है. जिसे पढ़कर पाठकगण निःशंक हो जायेंगे कि विधवाविवाह न तो व्यभिचार है और न पाप है-मात्र कन्याविवाह व विधुरविवाह के समान एक नीति पूर्ण लोकिक कार्य है-इतना ही नहीं-यह उस अबला को व्यभिचार व हिंसा के घोर पापों से बचाने वाला है ।सर्व ही जैन व हिंदू भाइयों को उचित है कि इस पुस्तक को श्रादि से अन्त तक पढ़ें । उनका चित्त बिलकुल मानलेगा कि विधवाविवाह निषिद्ध नहीं है किन्तु विधेय है।
पाठकों को उचित है कि भारत में जो गुप्त व्यभिचार व हिंसा विधवाओं के कारण हो रही है उसको दूर करावे