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( ५ ) ने अपने मालिकों का पक्ष लिया, और जब वे स्वतन्त्र हो गये तो मालिकों की ही शरण में पहुँचे । गुलामी का ऐमा ही प्रभाय पड़ता है । ज़रा स्वतन्त्र नारियों से ऐसी बात कहिये-योगेप की महिलाओं से विधवाविवाह के विरोध करने का अनुरोध कीजिये - तब मालूम हो जायगा कि स्त्री-हृदय क्या चाहता है ? हमारे देश की लजालु स्त्री छिपे छिपे पाप कर सकती है। परन्तु स्पष्ट शब्दों में अपने न्यायोचित अधिकार भी नहीं माँग सकतीं । एक विधवा से-जिसके चिन्ह वैधव्य पालन के अनुकूल नहीं थे-एक महाशय ने विधवाविवाह का ज़िकर किया तो उनको पचासों गालियाँ मिली, घर वालों ने गालियाँ दी और बेचारों की बड़ी फ़ज़ीहत की । परन्तु कुछ दिनों बाद वह एक श्रादमी के घर में जाकर बैठ गई ! इमी तरह हज़ारों विधवाएँ मुसलमानों के साथ भाग सकती हैं, भ्रणहत्या कर सकती हैं, गुप्त व्यभिचार कर सकती है, परन्तु मुह से अपना जन्म सिद्ध अधिकार नहीं माँग सकतीं। प्रायः प्रत्येक पुरुष को इस बात का पता होगा कि ऐसे कार्यों में स्त्रियां मुंह से 'ना', 'ना' करती हैं और कार्य से 'हाँ', 'हाँ' करती है, इस लिये स्त्रियों के इस विरोध का कुछ मूल्य नहीं है।
बहिन कल्याणी ने अपने पत्रमें सीता सावित्री श्रादि की दुहाई दी है। क्या बहिन ने इस बात पर विचार किया है कि अाज सैकड़ों वर्षों से उत्तर प्रान्तके जैनियों में विधवाविवाह का रिवाज बन्द है लेकिन तब भी कोई सीता जैसी पैदा नहीं हुई है? बात यह है किपशुओके समानगुलाम स्त्रियों में सीता जैसीस्त्री पैदा हो हा नहीं सकती,क्योंकि डंडे के बलपर जो धर्म का ढोंग कराया जाता है वह धर्म ही नहीं कहलाता है। बहिनका कहना