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अधिक प्रमाण हैं । इस लिये यह बात सिद्ध होती है कि हिन्दुओं में पहिले आमतौर पर पुनर्विवाह होता था । ऐसे विवाहों की सन्तान धर्मपरिवर्तन करके जैनी भी बनती होगी। जिस प्रकार आज दक्षिण में विधवा-विवाह चाल है उसो तरह उस ज़माने में उत्तर प्रान्त में भी रहा होगा। कौटिलीय अर्थशास्त्र के देखने से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है । त्राणिक्य ने यह ग्रन्थ महाराजा चंद्रगुप्त के राज्य के लिये बनाया था, और जैनग्रंथों से यह सिद्ध है कि महाराजा चंद्रगुप्त जैनी थे। एक जैनी के राज्य में पुनर्विवाह के कैसे नियम थे, यह देखने योग्य है
___ "हस्त्र प्रवासिनां शुद वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मणानां भार्याः संवत्सरोत्तरं कालमाकांक्ष रनजाताः संवत्सराधि प्रजाताः । प्रतिविहिता द्विगुणं कालं ॥ अप्रतिविहिताः सुखावस्था विभूयुः परंचत्वारिवर्शगयष्टौवा शातयः ॥ ततो यथा दत्त मादाय प्रमुञ्चयुः॥ ब्राह्मणमधोयानं दश वर्षारय प्रजाता द्वादश प्रजाता रामपुरुषमायुः क्षयादाळेत ॥ सवर्णतश्च प्रजाता नापवाद लभेत् । कुटुम्बर्द्धि लोपे वा मुखावस्थै विमुक्ता यथेष्टं विन्देत जीविनार्थम् ।'
अर्थात-थोड़े समय के लिये बाहर जाने वाले शुद्र वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणों की पुत्रहीन स्त्रियाँ एक वर्ष तथा पुत्रवती इससे अधिक समय तक उनके पानेकी प्रतीक्षा करें। यदि पति उनको श्राजीविका का प्रबन्ध कर गये हों तो वे दुगुने समय उनकी प्रतीक्षा करें और जिनके भोजनाच्छादन का प्रबन्ध न हो उनका उनके समृद्ध बंधुबांधव चार वर्ष या अधिक से अधिक आठ वर्ष तक पालन पोषण करें । इसके