Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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त्रिविध साधनामार्ग और मुक्ति
कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधना मार्ग के किसी एक ही पक्ष को मोक्ष की प्राप्ति का साधन मान लिया है। प्राचार्य शंकर मात्र ज्ञान से, रामानुज मात्र भक्ति से मुक्ति की संभावना को स्वीकार करते हैं। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसे किसी एकान्त वादिता में नहीं पड़ते। उनके अनुसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र (ज्ञान, कर्म, भक्ति) की समवेत साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इसमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं होता है। और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है । इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिये तीनों अंगों का होना आवश्यक है ।
सम्यक दर्शन
जैनागमों में दर्शन शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है और उस के अर्थ के सम्बन्ध में जैन परम्परा में काफी विवाद रहा है । दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। 'दर्शन शब्द का दृष्टिकोण परक अर्थ भी लिया गया है। प्राचीन जैन आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोण-परक अर्थ का द्योतक है। उत्तराध्ययन सूत्र एवं तत्त्वार्य सूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ तत्त्वश्रद्धा भी माना गया है । परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द को देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है । इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन-आत्म-साक्षात्कार, तत्त्वश्रद्धा, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं ।
सम्यक् दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थ श्रद्धा उस में वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है, किन्तु दूसरा वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तु तत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । यद्यपि यहां दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से । श्रद्धा हो सम्यक् दृष्टि हो तो भी यह अर्थ अन्तिम नहीं हैं, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है और यही सम्यक् दर्शन होता है निर्विकार, निराकुल चित्तवृत्ति से । अतः प्रकारा'न्तर से उसे भी सम्यक्-दृष्टि कहा जाता है।
___ 20-उत्तराध्ययन सूत्र 28/30 1 21-उत्तराध्ययन सूत्र 28/35 व तत्त्वार्थ सूत्र 1/2
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