Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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अपने घर के द्वार पर आलेखित अथवा कोतरी हुई या चूने, सीमीटादि से जिनप्रतिमा को बनवाता है। अथवा चायनामिट्टी की टाइलों पर बनी हुई जिनमूर्ति को लगाता है।
इससे यह अनुमान लगाना सरल हो जाता है कि यह जैन धर्मानुयायी का घर है और गली मोहल्ले से गुजरने वाले श्रद्धालू व्यक्ति से भी जिनेन्द्रदेव के दर्शनों का लाभ ले सकते हैं। यह रिवाज आज लुप्त प्रायः हो चुका है। इस से नगर में जैनों के कितने घर हैं उनकी गिनती करने में भी सुविधा रहती थीं।
3. निश्राकृत चैत्य-जिसने अपने नाम से जिनप्रतिमा या जिनमंदिर बनवाया हो उसे निश्राकृत चैत्य कहते हैं। इसमें संघ का अथवा दूसरे व्यक्ति का अधिकार नहीं होता। इसे जिस गच्छ बाला बनबाता है, वही व्यक्ति अथवा उसी गच्छवाले जा सकते हैं अन्य नहीं।
4. अनिश्राकृत चैत्य-जो चैत्य किसी व्यक्ति अथवा किसी अमुक गच्छ का नहीं है अर्थात् किसी की निश्रा का नहो उसे अनिश्राकृत चैत्य कहते हैं । इसे पंचायती चैत्य (मन्दिर-देरासर) भी कहते हैं । श्री वीतराग-सर्वज्ञ तीर्थंकर को मानने वाला कोई भी व्यक्ति उसमें जाकर भक्ति-पूजा-उपासना कर सकता है ।
5. शाश्वत चैत्य-उत्पत्ति विनाश रहित अनादि अनन्त काल तक विद्यमान रहने वाला चैत्य शाश्वत चैत्य कहलाता है। इसे स्वभाविक जिनमन्दिर भी कहते हैं । नन्दीश्वर द्वीप आदि में शाश्वत चैत्यों का वर्णन शास्त्रों में आता हैं । इन्हें अकत्रिम चैत्य भी कहते हैं। इन मन्दिरों में चार तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का उल्लेख "मिलता है । यथा
__ 1. उसभ (ऋसभ), 2. चन्द्रानन, 3. वारिषेण तथा 4. वर्द्धमान नाम के चार तीर्थंकर प्रत्येक काल में अवश्य होते हैं । इसी लिए इन्हें शाश्वत कहा गया है । अनादि काल से शाश्वत प्रतिमाओं के यही नाम हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे । यही कारण है कि अकृत्रिम स्वभाविक चैत्यों में इन्हीं चारों तीर्थंकरों के नाम वाले जिनचैत्य (प्रतिमाएँ) सदा काल विद्यमान रहती हैं ।
हम लिख आए हैं कि पंचमांग भगवती सूत्र में वर्णन है कि भरतक्षेत्र से जंधाचारण, विद्याचारण आदि मुनि नन्दीश्वर द्वीप में शाश्वत (अकृत्रिम) जिनचैत्यों की वन्दना नमस्कार करने जाते हैं और वहाँ से लौटकर यहां के अशाश्वत चैत्यों को वन्दन नमस्कर करते हैं। इस प्रसंग पर जो तीन बार चेइयाइं वंदति का उल्लेख हुआ है उसका स्पष्टार्थ यह है कि चारण मुनि नन्दीश्वर द्वीप के शाश्वतें चैत्यों को वन्दन करके फिर यहां लौट कर अशाश्वते चैत्यों को वन्दन करते हैं। आगमों, शास्त्रों धर्मग्रन्थों में जहां-जहां जिनप्रतिमा या चैत्य शब्द आता है उनका तीर्थकर प्रभु की मूर्ति ही अर्थ होता है। इसका विवेचन हम विस्तार पूर्वक पहले कर चुके हैं। रायपसेणी जीवाजीवाभिगम, जम्बुद्वीप पण्णत्ति, ठाणांग, भगवती आदि किसी भी जैनागम में
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