Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 244
________________ 227 मैं इन फलों को प्राप्त करके अपने आत्म स्वरूप को भूल गया हूँ । अब मुझे ऐसा फल प्राप्त हो जिसके द्वारा मुझे आत्मा के स्वरूप का भान सर्वदा अखण्ड बना रहे। दूसरे "फल की इच्छा ही न हो । 9. अयं पजा इति जिनवर वृन्दं भक्तितः पूजयन्ति । सकल गुण निधानं देवचन्द्र स्तुवन्ति ॥ प्रति दिवसमनन्तं तस्व मुद्भासयन्ति । परम सहज रूप मोक्ष सौख्यं श्रयन्ति ॥19॥ अर्थ -- उपाध्याय श्री देवचन्द्र मुनि कहते हैं कि इस प्रकार से भक्तजन सकल गुणों के भण्डार श्री जिनेश्वर भगवन्तों ( 24 तीर्थंकरों) की सदा भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं और इसके द्वारा वे अनन्त तत्त्व को प्राप्त करते हैं अत: वे स्वाभाविक मोक्ष तत्त्व को पाने के लिए अर्घ्यपूजा करते हैं । भावना - अष्ट प्रकार की पूजा करके बाकी बचे हुए अष्टद्रव्यों को प्रभु के आगे चढ़ाकर और चारों तरफ़ जलधारा देकर प्रभुजी से सानुनय प्रार्थना करनी चाहिए “कि हे दयानिधे ! आपकी इन अष्टद्रव्यों से पूजा करने से मेरे अष्टकर्मों का नाश हो - बस यही चाहता हूं | 10. वस्त्राभूषण पूजा - श्लोक – शको यथा जिनपतेः सुरशैलचूला । सिंहासनोपरिमित स्नपनावसाने ॥ दध्यक्षः कुंसम-चन्दन गंध धूपैः । कृत्वाच्चनन्तु विदधाति सुवस्त्र पूजा ॥10॥ तद्वत श्रावकवर्ग एष विधिनालंकार-वस्त्रादिकम् । पूजा तीर्थकृतां करोति शक्तयातिभक्तयर्हितः ॥ नीरागस्य निरंजनस्य विजताराते स्त्रि लोकीपतेः । स्वस्यान्यस्य जनस्य निर्वृति कृते कलेश क्षयाकांक्षया ||11|| अर्थ - मेरु पर्वत के शिखर पर विद्यमान सिहासन पर जैसे शक्रेन्द्र प्रभु को जन्माभिषेक (जन्म का स्नान ) कराने के बाद सुगन्ध, चन्दन, पुष्प, धूप आदि से पूजा करके उनको उत्तम जाति के वस्त्र अलंकारादि धारण कराता है वैसे ही जो श्रावकश्राविकायें सदा अपनी शक्ति के अनुसार अतिभक्ति और उत्साह पूर्वक वीतराग, निरंजन, त्रिलोकीनाथ, केवलज्ञानी प्रभु की वस्त्र और अलंकारों (आंगी) से पूजा करते हैं, वे सर्वक्लेशों से मुक्त हो जाते हैं । भावना - देवेन्द्रों, नरेन्द्रों द्वारा पूजित देवाधिदेव तीर्थंकर भगवन्तों की वस्त्र और अलंकारों से पूजा करके ऐसी भावना करनी चाहिये - हे देवाधिदेव प्रभो । आप धन्य हैं कि जन्माभिषेक के समय देव देवेन्द्रों द्वारा आपकी की गई वस्त्रालंकारों से भक्ति से आपके मन में इन बाह्य वस्तुओं पर न तो कोई आकर्षण ही हुआ न ममत्वभाव ही हुआ । राजकुमार अवस्था में भी आप को इन के प्रति कभी भी प्यार मोह नहीं था। दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले वर्षीदान देते समय आप के पास सब प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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