Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 247
________________ 230 के भाल ( ललाट) की भक्ति पूर्वक पूजा करके सविनय प्रार्थना करता हूँ कि आप की पूजा भक्ति (जो कि बीसस्थानक में से यह भी एक स्थानक है) से मुझे भी इस पद को प्राप्त करने का सामर्थ्य प्राप्त हो । 7. गले पर तिलक करने का दोहा सोल प्रहर प्रभो ! देशना, कण्ठे विवर वर्तुल । मधुर ध्वनी सुर नर सुनी, तेने गले तिलक अमूल ॥7॥ अर्थ - हे प्रभो महावीर स्वामी ! आप के अन्तिम समय (मोक्ष प्राप्ति ) से पहले सोलह प्रहर (लगातार दो दिन रात) तक अपने पवित्र कंठ से सर्वजन कल्याणकारिणी धर्मदेशना दी । आपकी इस मधुर दिव्य ध्वनी को देवताओं, मनुष्यों और तियंचो ने जन्म-जातिगत परस्पर के वैर-विरोध को सर्वथा त्याग कर एकाग्रचित्त से सुना । इसलिए मैं आपके कंठ की पूजा करके प्रार्थना करता हूँ कि मुझे भी ऐसी शक्ति : प्राप्त हो । 8. छाती पर तिलक करने का दोहा । हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष । हिम दहे वण खण्ड ने, हृदय तिलक संतोष ॥8॥ अर्थ - हे प्रभो ! आपने हृदय की शान्ति द्वारा राग द्वेष को ऐसे जला डाला जैसे हिम-पात (बरफ गिरने ) से जंगल में सब प्रकार के पेड़ पौधे जल जाते हैं । हे भग-धन् ! मैं आपके ऐसे शान्त हृदय की पूजा करके यह प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मन में भी ऐसी शान्ति निवास हो । 9. नाभि पर तिलक करने का दोहा रत्नत्रयी गुण ऊजली, सकल सगुण विश्राम । नाभि कमल नी पूजना, करतां अविचल धाम ॥9॥ अर्थ - हे प्रभो ! सर्व गुण निष्पन्न, उज्ज्वल ( निर्मल) रत्नत्रयी ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र) को धारण करने वाली आप की नाभि की मैं पूजा करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि मुझे अविचल स्थान (मोक्ष) की प्राप्ति हो । 10. नवांग पूजा करने का हेतु उपदेशक नव तत्त्व ना, तिन नव अंग जिनन्द | जो बहुविध राग (भाव) थी, कहे शुभ वीर मुनीन्द ॥10॥ अर्थ – हे कल्याण करने वाले मुनियों में इन्द्र समान ( तीर्थंकर प्रभो ) ! राग-द्वेष जीतने में वीर प्रभो ! आप नव (जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष) तत्त्वों के उपदेशक हैं इसलिए आपके बहुत भक्ति भाव पूर्वक नव अंगों की पूजा करने से मैं नव तत्त्वों का हेय, ज्ञेय, उपादेय पूर्वक भलीभांति ज्ञान करके शुद्ध श्रद्धापूर्वक संवर और निर्जरा द्वारा मोक्ष प्राप्त करूँ । शुभ वीर मुनींद शब्दों से इस पूजा को बनाने वाले मुनि श्री शुभ वीरविजयः जी ने अपने नाम का भी सूचन किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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