Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 250
________________ 233 यदि शिकारी उसे दृढ़ता से बांधकर दौड़-धूप करने दे तो अन्त में वह थककर हार ‘जायेगा और दौड़ धूप छोड़कर स्थिर हो जायेगा। इसी प्रकार प्रथम अभ्यासी मन को ऐसी चपलता और विक्षेपता देखकर यदि निराश हो जाये और अपना अभ्यास छोड़ दे तो मन छूट जायेगा। फिर कभी काबू नहीं आवेगा। यदि हिम्मत रखकर ध्याता अपना अभ्यास आगे बढ़ाता चला जावेगा तो बहुत चपल और विक्षिप्त मन भी शांत होकर स्थिरता प्राप्त कर लेगा। पहली विक्षिप्त दशा लांघने के बाद 2. दूसरी दशा मन की यातायात की है। यातारात का मतलब है आना और 'जाना। थोड़ी देर मन स्थिर रहे फिर भाग निकले अर्थात् विकल्प आ जाए । फिर समझा बुझाकर मन स्थिर किया पर दूसरे क्षण चला जाय । यह मन की यातायात अवस्था है। पहली विक्षिप्त दशा से दूसरी यातायात श्रेष्ठ है और इसमें कुछ आनन्द 'का लेश रहा हुआ हैं; क्योंकि जितनी बार मन स्थिर होगा उतनी बार तो आनन्द का अनुभव होगा ही। 3. तीसरी अवस्था श्लिष्ट मन की है। यह अवस्था स्थिरता और आनन्द वाली है। जितनी स्थिरता उतना ही आनन्द । मन की इस तीसरी अवस्था में दूसरी अवस्था से विशेष स्थिरता होने से आनन्द भी विशेष होता है। 4. सुलीन मन की चौथी अवस्था यह निश्चल और परमानन्द वाली अवस्था है जैसा नाम है वैसे ही गुण भी है। तीसरी अवस्था के मन से भी इस चौथी अवस्था में मन की अधिक निश्चलता तथा स्थिरता होती है । इसलिये इसमें आनन्द भी अलौकिक होता है । इस मन का विषय आनन्द और परमानन्द है। 5. परमानन्द प्राप्ति का क्रम आत्मसुख का अभिलाषी ध्याता अन्तरात्मा द्वारा बाह्यात्म भाव को दूर करता है और तन्मय होने के लिए निरन्तर परमात्म भाव का चिंतन करता है। . 6. बहिरात्म भाव का स्वरूप शरीर, परिवार, धन, स्वजन आदि के आत्मबुद्धि से ग्रहण करने वाले को यहीं बहिरात्मा कहा है । शरीर मैं हूँ अथवा शरीर मेरा है ऐसा मानने वाला, धन, स्वजन, स्त्री, कुटुम्ब, पुत्र आदि को अपना मानने वाला—यह बहिरात्म कहलाता है। 7. अन्तरात्म भाव शरीर आदि का अधिष्ठता वह अन्तरात्मा कहलाता है । अर्थात् शरीर का मैं अधिष्ठता हूँ, शरीर में रहने वाला हूँ शरीर मेरा रहने का घर है अथवा शरीर का मैं दृष्टा हूँ। इसी प्रकार धन, स्वजन, कुटुम्ब, स्त्री, पुत्र, पति आदि सब संयोगिक हैं तथा पर हैं । मैं शरीर से भिन्न शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा हूं। शुभाशुभ कर्म विपाक जन्म यह संयोग वियोग में हर्ष शोक न करके द्रष्टा मात्र रहे वह अन्तरात्मा कहलाती है और ऐसे विचार अन्तरात्म-भाव कहलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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