Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 251
________________ 234 8. परमात्म स्वरूप ज्ञान स्वरूप, आनन्दमय, समग्र उपाधि रहित, शुद्ध, इन्द्रिय अगोचर तथाः अनन्त गुणवान । यह परमात्मा का स्वरूप है। 9. ध्याता (योगी) स्खलना नहीं पाता आत्मा से शरीर को जुदा जानना तथा शरीर से आत्मा को जुदा जानना; इस' प्रकार आत्मा और देह के भेद को जानने वाला योगी निश्चय करके आत्मा प्रगट करने में कभी स्खलता नहीं पाता। जिनकी आत्माज्योति कर्मों से दब गई है-तिरोहित हो गई है। ऐसे मूढ़ जीव' जब आत्मा के भान को भुलाकर पुद्गल में सन्तोष पाते हैं सब बहिर्भाव में सुख की भ्रांति की निवृत्ति पाये हुए योगी आत्मा के स्वरूप के चिंतन में ही सन्तोष पाते हैं। जो साधक आत्मज्ञान को ही चाहता हो, दूसरे किसी भावना-पदार्थ के सम्बन्ध में प्रवृत्ति अथवा विचार न करता हो तो आचार्य निश्चय करके कहते हैं कि ऐसे ज्ञानी पुरुषों को वाह्म प्रयत्न के बिना मोक्ष पद प्राप्त हो सकता है। जैसे सिद्धरस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है वैसे ही आत्म ध्यान से आत्मा परमात्मा को पा लेती है। जैसे निद्रा में से जागृत मनुष्य को सोने से पहले के जाने हुए कार्य किसी के कहे अथवा बतलाये बिना ही याद आ जाते हैं वैसे ही जन्मान्तर के संस्कारों वाले साधक को किसी के उपदेश के बिना ही निश्चय तत्त्वज्ञान प्रकाशित होता है। साधक मन वचन काया की चंचलता को बहुत प्रयत्न पूर्वक रोके और रस के भरे हुए बरतन के समान आत्मा को शांत, निश्चल, स्थिर तथा निर्मल अधिक समयः तक रखे। 10. आत्मा को स्थिर रखने का क्रम रसके पात्र में रहे हुए रस के समान आत्मा को स्थिर रखे। रस को स्थिर रखने केलिये उस रस के आधारभूत पात्र को भी निश्चल रखना ही चाहिये । क्योंकि पात्र रस का आधार है उसमें जितनी अस्थिरता रहेगी उस अस्थिरता का प्रभाव आधेय (रस) पर अवश्य पड़ेगा। इसलिये मन, वचन' काया, आत्मा के आधार रूप हैं और आत्मा आधेय रूप है । आधार की विकलता अथवा स्थिरता का प्रभाव आधेय पर अवश्य होता है। यह अस्थिरता एकाग्रता के सिवाय बन्द नहीं हो सकती। एकाग्रता करने केलिये भी क्रमवार अभ्यास करने की आवश्यकता है । एकाग्रता होने पर ही लय और तत्त्व ज्ञान की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। अतः आत्मा को निश्चल रखने केलिये मन, वचन, काया को क्षोभ न हो; इसकी पूरी पूरी सावधानी रखनी चाहिए । अतः पूरी सावधानी से एकाग्रता करनी चाहिए। ___ 11. एकाग्रता मन की बार बार परावर्त प्राप्त करने वाली स्थित को शांत करना और मनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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