Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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चाहिये । इस विषय पर कुछ विवेचन करते हैं ।
15. रूपस्थ- मानसी पूजा
नीचे लिखे स्वरूप वाले शरीरधारी तीर्थंकर प्रभु का ध्यान रूपस्थ ध्यान है । - मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करने की तैयारी है, जिन्होंने सर्वघाती कर्मों का नाश किया है । देशना ( धर्मोपदेश ) देते समय देवताओं द्वारा निर्मित तीन बिंबों से चार मुख सहित हैं, तीन भुवन के सब प्राणियों को अभयदान दे रहे हैं अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा न करने का उपदेश देने वाले, चन्द्र मंडल सदृश उज्ज्वल तीन छत्र जिनके सिर पर सुशोभित हैं, - सूर्यमंडल की प्रभा को भी मात करता हुआ भामंडल जिन के पीछे जगमगाहट कर रहा है, दिव्य दुंदुभि वाजित्रों के शब्द हो रहे हैं, गीतगान की सम्पदा का साम्राज्य छा रहा है, जिनके सिर पर शब्दों द्वारा गुंजायमान भ्रमरों से अशोक वृक्ष वाचालित होकर शोभायमान हो रहा है, बीच में स्वर्ण सिंहासन पर तीर्थंकर प्रभु विराजमान हैं, दोनों -तरफ चामर डोलाये जा रहे हैं, नमस्कार करते हुए देवों और दानवों के मुकुट के रत्नों से चरणों के नखों की कान्ति प्रदीप्त हो रही है, सुगंधित पुष्पों के समूह से पर्षदा की भूमि सुगंधित हो रही है, ऊँची गर्दनें (ग्रीवाएं) करके मृगादि पशुओं के समूह जिनकी मनोहर ध्वनि का पान कर रहे हैं, सिंह- हाथी, सांपों-न्योला, गाय- बाघ आदि जन्म जात वैर स्वभाव वाले प्राणी भी अपने अपने वैर भावों को शांत करके पास-पास में वैठे हैं स्त्री-पुरुषों की मानव मेदनी, देव-देवियों के समूह धर्मदेशना का श्रवण करके आनन्दित हो रहे हैं, सर्व अतिशय से परिपूर्ण, केवलज्ञान से सुशोभित तथा समोसरण में विराजित उन परमेष्ठि अरिहंत के रूप का इस प्रकार आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं ।
राग-द्वेष और महामोह अज्ञानादि विकारों से कलंक - रहित शांत - काँत - मनहर सर्व उत्तम लक्षणों वाली योग मुद्रा- काउसग्ग मुद्रा-ध्यान मुद्रा की मनोहरता को धारण - करने वाली, आंखों को महान आनन्द तथा अद्भुत अचपलता को देने वाली, जिनेश्वर - देव की प्रतिमा का निर्मल मन से निमेषोन्मेष रहित खुली आँखें रखकर एक ही दृष्टि से ध्यान करने वाला रूपस्थ ध्यानवान कहलाता है। ऐसा ध्यान साधु-साध्वी, श्रावकश्रविका सब मुमुक्षुओं को करना चाहिए ।
जिनेश्वर देव की शांत तथा आनन्दित मूर्ति के सन्मुख खुली आंखें रखकर एक टक दृष्टि से देखते रहें । आँखें झपकनी अथवा हिलनी नहीं चाहिये । शरीर का भान भी भूल जाना चाहिये । जिससे एक नवीनदशा में प्रवेश होकर अपूर्व आनन्द की प्राप्ति और कर्म की निर्जरा होती है । इस दशा वाले को रूपस्थ ध्यानवान कहते हैं । ऐसा कोई भी आलम्बन हो जिससे आत्मिक गुण प्रगट हों तो इसे आलम्बन नाम का ध्यान कहते हैं ।
चित्त को एकाग्र निर्मल एवं स्थिर करने केलिये ध्यान की आवश्यकता है । ध्यान कैसे आरम्भ करना चाहिये इसके विषय में यहाँ थोड़ा सा विवेचन किया
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