Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 252
________________ 235 को किसी एक ही आकृति अथवा विचार अथवा गुण पर दृढ़ता से लगा रखना, इसे एकाग्रता कहते हैं। अभ्यासियों को प्रारम्भ में एकाग्रता करने के लिए जितनी मेहनत करनी पड़ती है उतनी मेहनत किसी भी प्रकार की क्रिया में नहीं करनी पड़ती। एकाग्रता रखने की क्रिया बहुत शिक्षाप्रद तथा कष्टसाध्य लगती है । परन्तु आत्म-विशुद्धि के लिये एकाग्रता प्राप्त किये बिना दूसरा कोई उपाय ही नहीं हैं । इनके बिना आगे बढ़ना असम्भव है । इस लिये प्रबल प्रयत्न करके भी एकाग्रता सिद्ध करनी चाहिये । 12. एकाग्रता करने की रीति और उपयोगी सूचना मन में उत्पन्न होने वाले विकल्पों का कोई उत्तर न देने से अभ्यास दृढ़ होता है। ऐसा करने के विचारों की प्रत्युत्तर देने की वृत्तियां शांत हो जाती है । एकाग्रता में पूर्ण शाम्यावस्था की जरूरत है। अर्थात् विकल्प उत्पन्न न होने देना इसके लिये स्थिर शांति रखनी चाहिये । यह शांति इतनी प्रबल होनी चाहिये कि वाह्य किसी भी निमित्त से चालू विषय के सिवाय मन को परिणामांतर कदापि न हो। तथा अमुक विकल्प को रोकना है ऐसा भी मन में परिणमन नहीं होना चाहिये । प्रायः देखा जाता है कि एकाग्रता में मन की प्रवृत्ति शांत नहीं होती। पर अपनी समग्र शक्ति इस की प्राप्ति में लगा देनी चाहिये । एकाग्रता में ध्येय की एक आकृति पर ही अथवा एक विचार पर ही दृढ़ रहने से मन स्थिर होता है। 13. एकाग्रता प्राप्त मन की शक्ति जैसे नदी की अनेक धारायें जदा जुदा हो जाने पर नदी पूर्ण प्रवाह के मूल बल को विभाजित कर देती है और बल के विभाजित हो जाने पर जल के प्रवाह में भी मंदता आ जाती है। जैसे नदी के एक प्रवाह रूप बहने से जिस प्रबलता और वेग से कार्य हो सकता था वह जुदा जुदा प्रवाह में बहने से नहीं हो सकता। वैसे ही एकाग्रता के एक ही प्रवाह में वहन करने वाला और उसके द्वारा मजबूत हुआ प्रबल मन जो अल्प समय में कार्य कर सकता है; वह अस्त-व्यस्त अवस्था में कभी नहीं कर सकता। अतः एकाग्रता की महान उपयोगिता के लिये महापुरुषों ने विशेष आग्रह किया है। __14. आत्म लय की अवस्था इस प्रकार किसी एक पदार्थ पर एकाग्रता प्राप्त करने से मन पूर्ण विजय प्राप्त करता है । अर्थात् महूर्त (48 मिनट) तक पूर्ण एकग्रता में मन रह जाने पर पश्चात् उस पदार्थ के विचार को छोड़ देना चाहिए और किसी भी पदार्थ के चितन की तरफ़ मन को प्रेरित किये बिना स्थिर करना चाहिये । इस अवस्था में मन किसी भी आकार में परिणत नहीं होता। मन तरंग बिना सरोवर के समान शांत अवस्था में रहता है। यह अवस्था स्वल्प काल से अधिक नहीं रहती जब अवस्था में शांत मन होता है तब मन रूप परिणत आत्मा मन से जुदा होकर स्व-स्वरूप में रमण करता है। इस स्वल्प समय की उत्तम अवस्था को लय अवस्था कहते हैं । यह लय अवस्था अधिक समय तक रहने से आत्मज्ञान प्राप्त होता है । इस प्रकार एकाग्रता का अंतिम फल बतलाकर एकाग्रता कैसे करनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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