Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 249
________________ 232 विघ्न-बाधाएं आयेंगी, उत्थान-पतन आयेंगे, परन्तु उसे तो अपने लक्ष्य को जागृत रखते हुए आराधना-साधना करते रहना चाहिये । सतत् प्रयत्नशील व्यक्ति ही अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफलता प्राप्त कर पाता है। 1. ध्यान करने का क्रम ध्यान करने वाले मनुष्य की क्या योग्यता होनी चाहिये ? जिसका ध्यान करता हो वह ध्येय कैसा होना चाहिए? तथा ध्यान करने से क्या फल होता है; ये तीनों ध्यान, ध्येय और फल का स्वरूप अवश्य जानना चाहिये । क्योंकि सम्पूर्ण सामग्री जानने और प्राप्ति बिना कभी भी कार्य सिद्ध नहीं होता। 2. ध्यान करने वाले का लक्षण (1) प्राण संकट में आ जावें तो भी चारित्र को दोष न लगाने वाला, (2) दसरे प्राणियों को अपने समान देखने वाला, (3)समिति गुप्ति रूप अपने स्वरूप से पीछे न हटने वाला, (4) सर्दी-गर्मी धूप-वर्षा वायु-आंधी आदि से खेद न पाने वाला (5) आराधना के करनेवाले योग रूपी अमृत रसायन को पीने की चाहना वाला, (6) राग द्वेषादि से पीड़ित न होने वाला, (7) क्रोध, मान, माया, लोभादि से दूषित न होने वाला, (8) सर्व कार्यों में निलेप और आत्मभाव में रमण करने वाला, (9) काम-भोगों से विरक्त, (10) अपने शरीर पर भी निस्पृह, (11) संवेग में मग्न, (12) शत्रु-मित्र स्वर्ण-पत्थर, निन्दा-स्तुति आदि सब में समभाव रखने वाला, (13) चाहे राजा हो, चाहे रंक, चाहे अमीर हो अथवा ग़रीब सबके लिये तुल्य कल्याण का इच्छुक, (14) सर्व जीवों पर अनुकम्पा करने वाला, (15) हृदय से निर्भीक, (16) चन्द्र के समान शीतल आनन्ददायक, (17) वायु के समान असंग (अप्रतिबद्ध) ऐसी स्थिति वाला विचक्षण ध्याता ध्यान करने योग्य है। 3. मन की स्थिति के भेद ध्यान का सर्व आधार मन पर है । मन की अवस्थाओं को जाने बिना और उसे उच्च स्थिति में लाये बिना ध्यान नहीं हो सकता। इसलिये यहां मन की स्थिति के भेद बतलाते हैं । मन के भेद--1. विक्षिप्त, 2. यातायात, 3. श्लिष्ट, 4. सुलीन । 4. मन के लक्षण (1) विक्षिप्त मन को चपलता इष्ट है, (2) यातायात मन थोड़ा आनन्दवाला है । प्रथम में यह दोनों प्रकार का ही मन होता है और इनका विषय विकल्प को ग्रहण करने वाला होता है। प्रथम अभ्यासी जब अभ्यास करता है तब मन में अनेक प्रकार के विक्षेप आते रहते हैं । मन स्थिर नहीं होता, चमलता ग्रहण किया करता है। इस पर से अभ्यासी को हताश अथवा निराश नहीं होना चाहिये। एक मृग जब जाल के पाश में फंस जाता है, तब वह उससे छूटने केलिये छटपटाता है, दौड़-धूप करने में भी किसी प्रकार की कमी नहीं रखता। यदि यह देख कर शिकारी उसे छोड़ दे तो वह अवश्य छूट आयेगा, फिर कभी हाथ में नहीं आयेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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