Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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वाली है उस धूप को श्री जिनराज के समक्ष खेता हुआ मैं धूप पूजा करता हूं।
- भावना-धूप पूजा में सुगन्धित धूप परमात्मा के सामने खेते हैं। उस समय यह भावना करनी चाहिए कि जिस प्रकार धूप जलते हुए भी अशुभ गंध का नाश कर वातावरण को शुद्ध और सुगन्धित बनाकर सर्वत्र सुगन्ध ही सुगन्ध फैला देता है वैसे ही हे प्रभो ! आपकी धूप पूजा से मुझे भी ऐसा बल मिले जिससे मेरे अशुभ भावों का नाश हो और शुभ भाव रूपी सौरभ प्रगट हो कि मैं पूर्व कर्मों के योग से विविध ताप' से जलते हुए भी आत्म जागृति की शक्ति द्वारा आस पास के लोगों में तथा विरोधी जीवों के हृदयों में शान्त वातावरण पैदा कर सकें एवं शील की सुगन्धी से सबके चित्त प्रसन्न कर सकू। जैसे धूप जलकर राख हो जाती है, हे भगवन ! वैसे ही मेरे सर्वकर्म भस्मीभूत हो जावें और जिस प्रकार धूप का धुआं ऊर्ध्व गमन करता है उसी प्रकार मेरी आत्मा भी अष्टकर्म रूपी ईन्धन को जलाकर मोक्ष प्राप्त कर ऊर्ध्व गमन करे ।
5. दीप पूजा श्लोक-भविक निर्मल बोध विकासकं । जिनगृहे शुभ दीपक दीपनम् ॥
सुगुण राग विशुद्ध समन्वितं । दधतु भाव विकास कृतेऽर्चना ॥5॥
अर्थ-श्री जिनमंदिर में दीपक जलाना भव्य प्राणियों को सच्चे ज्ञान प्राप्ति का कारण है । यह दीपक सुन्दर गुण और भक्ति का प्रतीक है । अतः हे भगतजनो ! शुद्ध भावों की प्राप्ति के लिए दीप पूजा भक्ति सहित कीजिए।
भावना-घी का दीपक प्रगट (जला) कर प्रभु की दीप से पूजा करते समय मन में ऐसी भावना होनी चाहिए कि हे परमात्मा ! आप सदा केवलज्ञान से प्रकाशमान हैं । जिस प्रकार दीपक अंधकार को दूर करता है और प्रकाश को प्रगट करता है उसी प्रकार मेरे हृदय में भी आप की भक्ति के प्रताप से अज्ञान रूपी अंधकार दूर हो, मलीन वासनायें नष्ट हों तथा सदा केलिए मेरे अन्तःकरण में शाश्वत ज्ञान की ज्योति जगमगाती रहे।
6. अक्षत पूजा श्लोक-सकल मंगल केलि-निकेतनं । परम मंगल भाव मयं जिनम् ॥
श्रयति भव्य जना इति दर्शयन् । दधतु नाथ ! पुरोक्षत स्वस्तिकम ॥6॥
अर्थ-श्री जिनेश्वर प्रभु समस्त कल्याण एवं क्षेम के स्थान हैं, परम मंगल भावना के धाम हैं । भक्तजन इसी भाव को व्यक्त करने के लिए अखण्ड चावलों का साथिया बनाकर अक्षत (चावलों से) पूजा करते हैं ।
भावना-दीनानाथ प्रभु के सामने अक्षत पूजा करते हुए चावलों से स्वस्तिक, उसके ऊपर तीन ढेरियां, ऊपर अर्धचन्द्राकार (सिद्धशिला) और उसके ऊपर एक ढेरी चावलों की बनाये जाते हैं। उस समय मन में यह भावना होनी चाहिए कि हे देवाधिदेव! are साथिया की चार पंखड़ियाँ चतुगति (देव, मनुष्य, तिर्यच एवं नारक) 0 रूप हैं । इन पंखड़ियों के समान ये चारों गतियाँ भी भयंकर होने से न टेढ़ियां हैं । इन चारों गतियों में मेरी आत्मा अनादि काल से भ्रमण कर रही है । मैं इन
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