Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 243
________________ 226 में भ्रमण करते-करते बहुत परेशान हो गया हूँ इसलिए घबराता हूं। आप श्री के सामने चावलों को तीन ढेरियां बनाकर यही चाहता हूं कि इस चार गति रूप संसार समुद्र से पार होने के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति हो जिससे मैं पारावार इस संसार को पार कर मोक्ष प्राप्त कर सकू और निर्वाण पा कर सिद्धशिला पर निवास कर सकू। जिस प्रकार धान पर से छिलका उतार लेने से (चावल) अक्षत, निर्मल, उज्ज्वल तथा शुद्ध हो जाते हैं और उनकी पुनः उगने की क्षमता समाप्त होकर जन्म-मरण से रहित हो जाते हैं । उनको बोने से भी कदापि किसी भी उपाय से अंकुरित नहीं होते, वैसे ही इस अक्षत पूजा से हे दीनदयाल प्रभो ! इन चावलों के समान मेरी आत्मा पर चढ़ा हुआ कर्मरूपी छिलका दूर हो जावे अर्थात् सर्वकर्मों से मेरी आत्मा अलिप्त हो जावे जिससे मेरी आत्मा अखण्ड, निर्मल, उज्ज्वल शुद्ध होकर जन्म मरण से रहित हो जावे। 7. नैवेद्य पुजा श्लोक-सकल पुद्गल संग विवर्जनं । सहज बेतन भाव विलासकम् ।। सरस भोजन नव्य निवेदनात् । परम निर्वृत्ति भाव महं स्प.हे ॥7॥ अर्थ-प्रभु की नैवेद्य (पक्वान्न) से पूजा आत्मा से समस्त कर्म पुद्गलों को दूर करती है स्वाभाविक आत्म-स्वभाव को विकसित करती है । इसलिए सरस (स्वादिष्ट उत्तम प्रकार के) नैवेद्य को चढ़ाकर मैं प्रभु से निवृत्ति भाव (निराहार पद) की याचना करता हूँ। भावना-प्रभु के सामने विविध प्रकार के पक्वान्न चढ़ाकर पूजा करते समय यह विनती करनी चाहिए कि हे करुणासिंघो ! आपने रसनेन्द्रिय के विषयों पर विजय प्राप्त कर ली है और अनाहारी पद पा लिया है। परन्तु अनादि काल से इन पदार्थों को खाते-खाते मुझे न तो तृप्ति ही प्राप्त हुई है, न रसनेन्द्रिय की लोलुपता ही मिटी है और न ही मेरी तृष्णा एवं क्षुधा ही समाप्त हुई है । इन पदार्थों को पाने, खाने में ही मैं आनन्द मानता रहा हूँ। आप की नैवेद्य पूजा करने से मैं यही चाहता हूं कि मैं निराहारी पद प्राप्त कर सदा आत्मा के आनन्द से ही तृप्ति पाऊं । इसलिए मुझे अनाहारी पद पाने का बल प्राप्त हो। 8. फल पूजा इलोक-कटुक कर्म विपाक विनाशनं । सरस पक्व फल व्रज ढोकनम् ॥ वहति मोक्ष फलस्य प्रभो पुरः । कुरुत सिद्धि फलाय महाजनः ॥8॥ ___ अर्थ-जो फल पूजा अनिष्ट कमों के फल को नष्ट करने वाली है, जो सरस पके फलों से की गई मोक्ष फल की प्रतीक है; हे भव्य प्राणियों ! श्रेष्ठ मनुष्यों ! तुम भी मोक्ष फल प्राप्ति के लिए इस पूजा को करो। भावना-विविध प्रकार के स्वादिष्ट पके हुए फल प्रभु के सामने रखकर फलों से पूजा करनी चाहिए और मन में ऐसी भावना करनी चाहिए कि हे तरणतारण देव ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258