Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 230
________________ 213 आशातना होती है। (2) अनादर आशातना का स्वरूप 1-जारिसत्ता-रिस-वेसो 2-जहा तहा जम्मि 3-तम्मि कालम्मि । 4-पुयाइ कुणइ सुन्नो, अणायरासायणा एसा ।।1।। अर्थात्-1-फटा, कटा, जला, मैला, गाँठा-जोड़ा वस्त्र पहन कर पूजा करना; 2-प जा तथा दर्शन की विधि पर लक्ष्य न देते हए जैसे-तैसे अविधि से पूजा करना, 3दर्शन-पूजन समय पर न करना, 4-अन्य चित्त से अर्थात्-मन, वचन, काया के योग की एकाग्रता के सिवाय अन्यमनस्क पूर्वक पूजा करना । जिन पूजा में इन चारों प्रकार की आशातनाओं से प्रभु का अनादर होता है। (3) भोग आशातना 'भोगो दसप्पयारो कीरंतो जिण-वरिंद-भवणम्मि । आसायणा ति बाढं वज्जेअव्वा जओ वृत्तं ॥' अर्थात्--श्री जिनमंदिर में दस प्रकार का भोग करना; यह भोग आशातना कहलाती है। इसका पूरी सावधानी पूर्वक त्याग करना चाहिए । भोग आशातना के दस प्रकार यह हैं 'तंबोल-पाण भोयणु उवाहन इत्थी-भोगशयणनिहुयणं । उच्चारं जुयं वज्जे जिण मंदिरस्स तु।" अर्थात्-तंबोल (पान), जलपान, भोजन, जूते, स्त्री भोग, शयन, थूकना श्लेष्म आदि गिराना, मूत्र, पखाना करना तथा जुआ खेलना ये दस भोग आशातनाएँ कहलाती है । इनका जिनमंदिर में त्याग करना चाहिए । (4) प्रणिधान आशातना 'रागेण व दोसेण ब, मोहेण व दुसिया मणोवित्ति । दुप्पडिहाणं भण्णइ जिण विसये तं न कायध्वं ।' अर्थात्-राग द्वारा, द्वेष द्वारा, मोह-अज्ञान द्वारा चित्त की वृत्ति जो दूषित होती है; उसे दुष्प्रानिधान कहते हैं । यह आशातना जिनमंदिर में नहीं करनी चाहिए। (5) अनुचित्तवृत्ति आशातना 'विकहा धरणय-दाणं, कलह-विवायाइ गेह किरिया। अणुचिय वित्ति सव्वा, परिहरियव्वा जिण-गिहम्मि ॥' अर्थात् -(1) विकथा (स्त्री, भोजन, राज, देश की कथाएँ), (2) धरणा देकर बैठना, (3)कलह-विवाद आदि करना, (4) घर के कामकाज करना । ये चार प्रकार की अनुचित आशातनायें कहलाती हैं । इनका भी श्री जिनमंदिर में त्याग करना चाहिए । जिनमदिर की जो 84 आशातनाये कहलती हैं उन सबका अनुचित आशातना में समावेश हो जाता है । उन सब आशातनाओं का भी अवश्य त्याग करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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