Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 238
________________ 221 हूँ । ( 5 ) ये सब मुझे भव पर्यन्त ( जब तक इस संसार में जन्म-मरण करना पड़े तब तक) यानि मुक्ति प्राप्त करने तक प्राप्त होते रहें 12 हे वीतराग प्रभो ! यद्यपि आपके शासन में नियाणा ( सकाम राग ) करने की सख्त मनाही है तो भी मैं याचना करता हूँ कि मुझे भव भव में जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक आपके (निष्काम अनुराग ) चरणों की सेवा मिलती रहे 13 हे नाथ ! मेरे मानसिक तथा शारीरिक दुःखों (दुर्भावनाओं तथा कदाचार ) का नाश हो। (शुभ भावना और सदाचरण से कर्मों का क्षय हो ) समाधिपूर्वक मृत्यु हो अर्थात् पण्डित मरण हो और बोध ( सम्यक्व ) की प्राप्ति हो तथा उत्तरोत्तर शुद्धि की प्राप्ति हो । ये सब आपको भावना पूर्वक प्रणाम ( वन्दना - नमस्कार ) करने से प्राप्त हो 14 हे प्रभो ! मैं आपके शासन रूप धर्म की चाहना क्यों करता हूं ? इसका एक मात्र कारण यह है कि - श्री जिनेश्वर प्रभु का शासन सदा जयवन्त रहता है - शाश्वत रहता है; क्योंकि यह लोक और लोकोत्तर सर्व मंगलों का उत्कृष्ट मंगल रूप है । स्वयं मोक्षादि सर्व कल्यणों का मूल कारण | जगत के सर्व धमों में आपका शासन (धर्म) सर्वश्रेस्ठ है 15 सारांश यह है कि श्री जिनदेव की भक्ति से आत्मा को पतन करने वाले कार्यों को त्याग तथा आत्मोत्थान के कर्त्तव्यों को स्वीकार करने की भावना जागृत होती है। जिसकी प्रेरणा से हृदय का परिवर्तन सरल सम्भव है । (6) जिनप्रतिमा - जिनमन्दिर आत्मोत्थान के प्रेरणादायक - जब तक कोई भी व्यक्ति श्री जिनमन्दिर में प्रभु भक्ति में व्यस्त रहता है तब तक धर्मध्यान में संलग्न रहता है । जिससे शुभ विचारों का प्रवाह बहने लगता है । इससे दुर्गुणों को दूर करने और सद्गुणों को अपनाने की प्रेरणा मिलती रहती है। तीर्थंकर प्रभु की शांतमुद्रा को देखकर हृदय में विचार होता है कि 18 दोषों रहित, 34 अतिशय, 12 गुणों सहित ये वीतराग - सर्वज्ञ तीर्थंकर विश्वपूज्य ओर तीनलोक के नाथ हैं। उनके दर्शन और स्मरण करते ही उनके गुण हृदय पर चित्रपट की भांति स्वयमेव चित्रित हो आते हैं । जिससे हमें यह प्रेरणा मिलती है कि अनादिकाल से भटकते हुए मुझे भी परमात्मपद प्राप्त हो । आचार्य श्री विजयबल्लभ सूरि जी ने कहा है कि 'मुणी से गुण नहीं भिन्न है, जिनपूजा गुणधाम । गुणी पूजा गुण देत है, पूर्ण गुणी भगवान ॥1॥ इस प्रकार विधिपूर्वक जिनेन्द्र देव की पूजा करने से प्रभु के गुण हमारी आत्मा में भी प्रगट होते हैं और हम भी उनके समान मोक्ष-निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं । पूजा समाप्त होने पर तीन बार 'अवसीहि' कहकर 'निसीहि' द्वारा किए हुए त्याग को वापिस लेना चाहिए। अवसीहि से किए त्याग को वापिस लेना होता हैं । पूजा करके बाहर निकलते समय पिछले ही पैरों से बाहर निकालना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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