Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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तन्मयता बनी रह सकेगी। दर्शन पूजन भक्ति में तन्मयता एवं एकाग्रता के लिए जैन दर्शन में दस क्रियाओं का प्रतिपादन किया है। प्रत्येक क्रिया तीन-तीन बार की जाती है, इसलिए इसे दसत्रिक के नाम से सम्बोधित किया जाता है । पूजा के उद्देश्य में "सफलता पाने के लिए इन सहयोगी क्रियाओं की अपेक्षा रहती है।
दस त्रिकों के नाम इस प्रकार हैं-(1) निसीहि त्रिक, (2) प्रदक्षिणा त्रिक, (3) प्रणाम त्रिक, (4) प जा त्रिक, (5) भावना त्रिक, (6) दिशात्याग त्रिक, (7) प्रमार्जन त्रिक, (8) आलम्बन त्रिक, (9) मुद्रा त्रिक, (10) प्रणिपात त्रिक ।
दस त्रिकों का संक्षिप्त स्वरूप 1. निसीहि त्रिक-तीन निसीहि (1) जिन मंदिर के मूल द्वार में प्रवेश करते -समय अपने घर-संसार सम्बन्धी कार्यों का त्याग करना यह पहली निसीहि । (2) प्रभु की पूजा के लिए मूलगंभारे में प्रवेश करते समय मंदिर जी की सारसंभाल, सफ़ाई आदि कार्यों का त्याग करना यह दूसरी निसीहि । (3) चैत्यवन्दन करते समय द्रव्य पजा का त्याग करके भाव पजा में तल्लीनता के लिये तीसरी निसिही कही जाती है।
2. तीन प्रदक्षिणायें-श्री जिनेश्वर भगवन्तों की प्रतिमा की दाहिनी और अपनी बांई तरफ से सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना केलिये तीन प्रदक्षिणायें (फेरियां) देना।
___3. तीन प्रकार प्रणाम-(1) श्री जिन प्रतिमा को देखकर दो हाथ जोड़ ललाट पर लगाकर प्रणाम करना । यह अंजलीबद्ध प्रणाम कहलाता है । (2) कमर के ऊपर का भाग कुछ झुकाकर प्रणाम करना यह अविनत प्रणाम कहलाता है और (3) दो घुटने, दो हाथ एवं मस्तक (ये पांचों अंग) नमाकर धरती पर लगाकर पंचांग नमस्कार कहलाता है।
4. तीन प्रकार की पूजा-(1) श्री जिनप्रतिमा को स्नान, केसर, चंदन, पुष्पों, आंगी, पुष्पमाला आदि से पूजा करना अंग पजा कहलाती है। (2) भगवान के आगे धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, फल, आरती, मंगल दीपक आदि चढ़ाना अन प जा कहलाती है। और (3) प्रतिपत्ति चैत्यवंदन, स्तुति, स्तोत्र, गायन, नाटक, नृत्य आदि करना भाव पूजा कहलाती है।
5. तीन अवस्थायें - (1) पिंडस्थ च्यवन से लेकर गृहस्थावस्था तथा छद्म-स्थावस्था (केवलज्ञान होने से पहले की अवस्था तक) (2) पदस्थ-केवली अवस्था, (3) रूपातीत-सिद्धावस्था।
6. तीन दिशाओं का त्याग-श्री जिनप्रतिमा के सम्मुख के सिवाय अन्य तीन दिशाओं में प्रभु के दर्शन, स्तुति आदि करते समय न देखना।
7. प्रमार्जन विक-(तीन बार भूमि शोधन) चैत्यवन्दनादि करते समय बैठने की भूमि तीन बार प्रमार्जन (पडिलेहण करना)।
8. आलम्बन त्रिक-प्रभु की पूजा करते समय पाठों का शुद्ध उच्चारण, पाठों
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