Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
188
तीर्थंकर भगवन्त तो बीतराग सर्वत्र हैं उनमें राग-द्वेष और अज्ञान का सर्वथा अभाव है । इसलिए उनके सिद्धांत त्रिकालवर्ती सत्य हैं, उनमें भिन्न-भिन्न पन्थों को पनपने का • अवकाश ही नहीं है । प्रभु ने तो सब दृष्टिकोणों को सत्य सापेक्ष रूप से समझाने के लिए स्याद्वाद - अनेकान्तवाद सिद्धांत का प्रतिपादन कर सब मत-मतांतरों को एक लड़ी में पिरोने की कला सिखलाई है । परन्तु खेद का विषय तो यह है कि आज उन्हीं वीतराग सर्वज्ञ के अनुयायी होने का दम भरने वाले अलग-अलग मत मतमतांतरों संप्रदायों में बट कर उनके सत् सिद्धांतों को ओझल करके फूट के बीजों को अंकुरित - कर रहे हैं ।
6. जिनप्रतिमा की मान्यता, उसकी पूजापद्धति निर्दोष तथा आत्मोत्कर्ष में साधक है और तीर्थंकर भगवन्तों ने अपने प्रवचनों में मोक्ष मार्ग का इसे साधन बतलाया है, इसके विधि-विधानों का निषेध करके अथवा जिनप्रतिमा द्वारा जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति उपासना का विरोध करके अपराधी न बनें। दृष्टिराग और राग-द्वेष के वातावरण को दूर करके सरल हृदय से सत्य मार्ग अपनावें । सब जैन संप्रदाय सत-पथ- गामी बनकर आत्मकल्याण करें। तभी वास्तविक एकता सम्भव है । यह इस लेख का उद्देश्य है ।
Jain Education International
9666 2 16OO
फणसहित श्री पार्श्व नाथ प्रभु
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org