Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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वाड़ करते देखे जाते हैं।
___ अतः हम यहां पर यह बात स्पष्ट करेंगे कि श्वेताम्बर जैन न मात्र अलंकृतादि अनग्न प्रतिमा ही मानते हैं अपितु नग्न तीर्थंकरों की प्रतिमाएं भी मानते हैं । यथा
(1) कंकाली टीले से प्राप्त तीर्थंकर श्री महावीर की नग्न प्रतिमा श्वेताम्बर जैन श्राविका के द्वारा करवा कर प्रतिष्ठित कराई गयी थी, उस पर अंकित लेख इस प्रकार है :
लेख-"सिद्धं सं0 20 ग्री० 1 दि० 25 कोटियतो गणतो वाणियतो कुलतो वयरीतो साखातो सिरिकातो भत्तितो वाचकस्य आर्य संघ सिंहस्य निवर्त्तनं दत्तिलस्य .........वि........'लस्य कोडुबिणिय जयवालस्य देवदासस्य नागदिन्नस्य च नागदिन्नाये च मातु सराविकाये दिण्णाए दाणं ई। वर्षमान प्रतिमा।
अर्थ-विजय ! संवत् 20, उष्णकाल का पहला महिना, मिति 25 का कोटिक गण, वाणिज कुल, वयरि शाखा, सिरिका विभाग के वाचक आर्य संघ सिंह की निर्वर्तन (प्रतिष्ठित) है। श्री वर्धमान (महावीर) प्रभू की (यह) प्रतिमा दत्तिल की बेटी वी....'ला की स्त्री, जयपाल, देवदास तथा नागदिन्न (नागदत्त की माता नागदिन्ना श्राविका ने अर्पित की)।
आकिआलोजिकल रिपोर्ट में इस लेख की नकल के नीचे सर कनिंघम ने एक नोट भी लिखा है, जिसका अर्थ यह है कि यह लेख जोकि सम्वत् 20 ग्रीष्म ऋतु का प्रथम महिना मिति 25 का है इस में वर्णन है कि श्री वर्धमान की प्रतिमा भेंट की, यह प्रतिमा नग्न है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर श्री वर्धमान अथवा महावीर का प्रतीक है । यह मूर्ति ई० पू० वर्ष 37 की है । अर्थात् दो हजार वर्ष प्राचीन है।
वह असल लेख यह है
Alaxander Cunningham C. S. ने अपनी Archealogical Report 'Vol III Page 31 में Plate no 6 Seript no 13 Samvat 20 Jain Figure में लिखा है--This inscription which is dated in the Samvat year 20, in the first Grishma (the hot season) the 25th day recards the gift of one statue of Vardhman (Pratima) an as the figure is naked. There can be no dowbt that it reprasents the Jain Vardhman or Mahvira the twenty fourth Ponttifs (B. C. 37)
डा० बूल्हर इस लेख के विषय में लिखता है कि
"यह संवत् इंडोसेंथियन नरेशों के साथ सम्बन्ध नहीं खाता किन्तु इनके पहले के किसी राजा का संवत् प्रतीत होता है। क्योंकि इस लेख की लिपि अत्यन्त प्राचीन
हम जब श्री कल्पसूत्र की स्थविरावली को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि
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