Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 222
________________ 205 धन नहीं चाहिए। क्योंकि मेरे पास जितना है उस से मुझे सन्तोष है। परिणाम स्वरूप चीन, यूनान, तुर्कस्तान आदि सब विदेशों में भी जैनधर्म का सर्वव्यापक प्रचार और प्रसार हुआ। इसलिए आज कल विद्वानों में जो प्रायः यह धारणा है कि भारत से बाहर के देशों से जैनधर्म ने प्रचार नहीं पाया। यह मान्यता लामचीदास की यात्रा के आंखों देखे विवरण से भ्रांत सिद्ध करदेती है। परन्तु उसके बाद दो सौ वर्षों में ही उन देशों में जैन राजाओं, जैनों तथा जैन मंदिरों, शास्त्रों आदि संस्थाओं का एकदम अभाव हो जाना और इतिहासकारों का इसके कारणों की खोज केलिए लक्ष्य न होना बड़े खेद की बात है। लगभग इतिहासबेत्ता अपना एक निश्चय मत यह वना बैठे देखे जाते हैं कि भारत के बाहर जैनधर्म का प्रचार और प्रसार मानना सर्वथा अनुचित है। उनकी ऐसी अनास्था पर आश्चर्य होता है। यह एक अनुसंधान का विषय है। यदि इतिहासकार इन देशों की यात्रा करके इस विषय पर शोध-खोज करें तो जैन इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ सकता है। शासनेश से प्रार्थना है कि जैनों का इस ओर लक्ष्य जाग्रत हो, व्यर्थ के अडम्बरों, साम्प्रदायिक वैमनस्यों, तीर्थों के झगड़ों आदि से मुक्त होकर इन झगड़ों में व्यर्थ जाते हुए धन को बचाकर संगठित रूप से दृष्टिराग का त्यागकर भारत और अन्य देशों में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी पड़ी हुई पुरातत्त्व सामग्री की शोध खोज में एक जुट होकर जैनधर्म के प्राचीन और वर्तमान इतिहास की खोज में अपनी लक्ष्मी का सद् उपयोग करें। समझदारों, धर्मानुरागियों केलिए इशारा ही काफ़ी है । अधिक क्या लिखें।। ___ तीर्थभूमि जिन नगरों, देशों में तीर्थंकर प्रभु, जन्मे वाल्यकाल व्यतीत किया,दीक्षित हुए, तप-ध्यान किया, विचरे, केवलज्ञान प्राप्त किया, धर्मोपदेश दिया, भव्य प्राणियों को प्रतिबोधित कर गणधर साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप तीर्थ संघ की स्थापना की, निर्वाण प्राप्त किया, वे तीर्थकर स्थान हैं । शास्त्रों में कहा है कि वे ग्राम, नगर, देश, धन्य हैं जहां तीर्थंकर भगवन्तों ने जन्म, दीक्षा, तप, केवलज्ञान तथा निर्वाण प्राप्त किया है, वहाँ की धूल भी मस्तक पर चढ़ाने के योग्य हो गई। आप लोग गुरु के चरणों को हाथ लगाते हैं । क्या धरा है वहां ? यही न कि उनके पैरों में लगी हुई धूल को पवित्र मानकर, उसे लेकर अपने माथे पर मसलते हो। तो फिर तीर्थंकर भगवान जहाँ विचरें, घूमें फिरें हों, वहां की रज पवित्र क्यों नहीं ? अत: जहां प्रभु घूमे-फिरे, बैठे-उठे वे सभी तीर्थ हैं। तीर्थभ मि की यात्रा से लाभ प्रथमांग श्री आचारांग सूत्र की नियुक्ति में चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी फरमाते हैं कि तीर्थकर, प्रवचनाचार्य आदि युगप्रधान, अतिशय ऋद्धिमत, केवलज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर तथा आम!षधादि ऋद्धिवालों. आदि के सन्मुख जाना, नमस्कार करना, दर्शनकरना, गुणोत्की र्तन करना इत्यादि दर्शन भावना है। निरन्तर इस दर्शन भावना से दर्शन (सम्यक्त्व) की शुद्धि होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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