Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 211
________________ 194 (1) पत्थर अथवा लकड़ी में नंद्यावर्त, शेषनाग, घोड़ा, श्रीवत्स, कछुआ, शंख, स्वस्तिक, हाथी, गाय, वृषभ, (बैल) इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, छत्र, माला, ध्वजा, शिवलिंग, तोरण, हरिण, प्रासाद (महल), मन्दिर, कमल, वज्र, गरुड़ सदृश रेखा हो तथा शिवलिंग, तोरण, हरिण, प्रासाद, कमल, गरुड़, शिव, ऋषभ की जटा के सदश्य रेखा हो तो शुभदायक है। (2) प्रतिमा के हृदय, मस्तक, कपाल, दोनों स्कन्ध (कंधे), दोनों कान, मुख, पेट, पृष्ठभाग, दोनों हाथ, दोनों पग आदि किसी अंगपर अथवा सभी अंगों पर नीले आदि रंग वाली रेखायें हों तो उस प्रतिमा को अवश्य छोड़ देना चाहिए। यदि उक्त भागों के सिवाय दूसरे अंगों पर हों तो मध्यम है । परन्तु खराब चीरा और दूषणों से रहित, स्वच्छ, चीकनी और ठंडी प्रतिमा हो तो दोषवाली नहीं है । (3) चन्द्रकांतमणि, सूर्यकांतमणि, आदि सब रत्नमणि की जाति की प्रतिमा समस्त गुणवाली है। घर चैत्यालय में यदि काष्ठ की प्रतिमा विराजमान करनी हो तो श्रीपर्णी, चन्दन, बेल, कदम्ब, रक्त चन्दन, पयाल, गूलर अथवा शीशम इन वृक्षों की लकड़ी की प्रतिमा उत्तम है । बाकी सब प्रकार की लकड़ी वर्जनीय है। किंतु इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उपर्युक्त वृक्षों की लकड़ी वृक्ष की उत्तम शाखा से बनी हुई होनी चाहिए तथा वह वृक्ष भी उत्तम भूमि में उगा हुआ होना चाहिए । अपवित्र स्थान में उत्पन्न होने वाले; चीरा, मसा अथवा नस आदि दोष वाले पत्थर की प्रतिमा नहीं होनी चाहिए । सर्व दोषों से रहित मज़बूत सफेद, पीला, लाल, हरे अथवा कृष्ण वर्ण वाले पत्थर की प्रतिमा होनी चाहिए। घर चैत्यालय में पूजने योग्य जिनप्रतिमा का स्वरूप समचतुत्र पद्मासन युक्त मूर्ति का स्वरूप (1) मूर्ति के दाहिने घुटने से बाएं कन्धे तक (2) बांयें घुटने से दांयें कन्धे तक (3) एक घुटने से दूसरे घुटने तक तिरछा तथा (4) पलांठी के मध्यभाग के नीचे (वस्त्र) से कपाल के केशों तक; चारों तरफ़ से समान माप होना चाहिये। ऐसी प्रतिमा समचतुस्र संस्थान वाली कही जाती है । ऐसी पर्यंकासन (पद्मासन) वाली प्रतिमा शुभ कारक है। परिकरवाली प्रतिमा तीर्थंकर की तथा बिना परिकरवाली प्रतिमा सिद्धावस्था की हैं। सिद्धावस्था की प्रतिमा धातु के सिवाय पत्थर, लेप, हाथीदांत, लकड़ी या "चित्राम की बनी हो तो नहीं रखनी चाहिये । (1) यदि प्रतिमा के नख, अंगुली, भुजा, नासिका और चरण-इन में -से कोई अंग खण्डित हो जावे तो शत्रु का भय, देश का विनाश, बन्धन कारक, कुल का नाश और द्रव्य का क्षय-ये क्रमशः फल होते हैं । (2) पादपीठ, गुह्यचिन्ह और परिकर इसमें से किसी का भंग हो जाय तो क्रमशः स्वजन, वाहन और सेवक की हानि होती है । (3) छन, श्रीवत्स और कान, इनमें से किसी का खण्डन हो जाय तो कमशः लक्ष्मी, सुख और बन्धु का क्षय होता है । Jain Education International nal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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