Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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नहीं करते, पर सत्कार, सम्मान, आदि करते-कराते हैं। साधु के चरणों की जड़ धूल को बड़े भक्ति भाव और श्रद्धा से सिर आंखों पर लगाते हैं। उन के गुरु के बैठने का आसन, पहनने के वस्त्र, औघा (रजोहरण) और मुंहपति की भी अविनय अवहेलना नहीं करते। साधु अपने फ़ोटो चित्र छपवाकर अपने भक्तों को उनका दर्शन करने की प्रेरणा और उपदेश देते हैं । अपने मरे हुए साधुओं की समाधियां बना कर उनकी पूजा भक्ति भी करते हैं । अब इस विषय में जरा गहराई से कसौटी पर कस कर परखें, इसके लिए यहां एक सच्ची घटना का उल्लेख करते हैं---
एक जैन धर्मानुयायी कन्या का नियम था कि जब तक जिनेन्द्रदेव के मन्दिर जी में तीर्थंकर प्रतिमा के दर्शन न करेगी तब तक अन्नजल ग्रहण न करूंगी। इसमें रजस्वला के समय अथवा अन्य रोगादि के कारण देवदर्शन न करने का आगार रख लिया था। क्योंकि अशुचि, अवस्था में जिनमन्दिर में प्रवेश का निषेध किया गया है । भाग्यवश उसका विवाह जिनप्रतिमा के विरोधी संप्रदाय में हो गया । किन्तु वह अपने ग्रहण किए नियम (प्रतिज्ञा) के अनुसार प्रतिदिन जिनमन्दिर में जाकर देवदर्शन किया करती थी । एकदा उस नगर में ढूंढक (स्थानकवासी) साधुओं का चतुर्मास था । जब वह कन्या देवदर्शन के पश्चात् उन साधुओं का दर्शन करने जाती तब वे साधु उसको जिनप्रतिमा के दर्शन में मिथ्यात्व बतलाकर उस के दर्शन का त्यागकर के अपने (उन साधुओं के) दर्शन करके भोजन करने की प्रतिज्ञा लेने की प्रेरणा करते रहते । एक दिन उस कन्या ने उनके दर्शन करके भोजन करने की भी प्रतिज्ञा ले ली और उनके दर्शन करने के बाद ही भोजन करती। जब ये साधु वहां से विहार कर गये तब वह कन्या भी उनके साथ ही चल पड़ी और उनके दर्शन करने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करने लगी ऐसे ही जब कुछ दिन बीतने लगे तो उसके ससुराल वाले यह देखकर बड़े चिंतातुर थे कि अब तो बहू भी हाथ से गई । साधु भी परेशान थे कि इस स्त्री को कब तक अपना पीछा करने देंगे । साधुओं के मन को उधेड़-बुन ने परेशान कर दिया । उन्होंने उस स्त्री को ससुराल-घर में लौट जाने के लिए कहा। उस स्त्री ने सानुनय विनयपूर्वक साधुओं से कहा--गुरु देव ! आपने मुझे प्रतिज्ञा दिलाई है कि आपके दर्शन करने के बाद ही में अन्न-जल ग्रहण किया करूं । जब आप विद्यमान थे तब तो मेरी प्रतिज्ञा का पालन हुआ। अब आपके अभाव में आपके दर्शन न मिलने से भूखों मरने की नौबत आ जावेगी। मैं नहीं जाऊंगी। तब बहुत तंग आकर बड़े साधु ने अपना एक फ़ोटो निकाल कर उस कन्या को देते हुए कहा कि-यह फ़ोटो लेजाओ इसके प्रतिदिन दर्शन करके भोजन कर लिया करना । उस बहू ने उस फ़ोटो को लेकर-साधु. को सम्बोधित करते हुए कहा कि-"महाराज ! यदि तीर्थंकर की प्रतिमा जड़ होने से आप उसकी पूजा भक्ति और दर्शन का निषेध करते हैं तो आपकी फ़ोटो सजीव है अथवा जड़ ? यदि जड़ है तो वह गुणहीन होने से दर्शन के योग्य कैसे ? यह कहकर उस फ़ोटो को उनके सामने ही फाड़कर फैकते हए कहा कि निर्दोष तीर्थंकरदेव की प्रतिमा को अपूज्य मानने वाले सदोष (मिथ्या प्रलापी) आप जैसे कुगुरु की फ़ोटो पूज्य क्यों ? तब ये साधु निरूत्तर होकर चुप रह गये और कन्या घर लौट गई।
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