Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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चाहिए कि-प्राणिमात्र के पूजनीय, सुरेन्द्रों के सेवनीय, योगीन्द्रों के आदरणीय, मुनीन्द्रों के माननीय और नरेन्द्रों के नमस्करणीय, ऐसे सर्वोत्कृष्ट और सार्वभौमिक, धर्मचक्राधीश्वर एवं सर्वेश्वर आप ही हैं। आप मेरे स्वामी हैं, मैं आप का सेवक हूं। आप मेरे देव हैं, मैं आपका दास हूँ। आप मेरे प्रभु हैं, में आपके चरणों की धूल हूं।
इस प्रकार स्वामी सेवक भाव का गाढ़ सम्बन्ध हो जाने से हृदय में ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है । दासत्व भाव का अभ्यास जैसे-जैसे बढ़ता है वैसे-वैसे वीर्योल्लास भी प्रकट होता है और वीर्योल्लास की वृद्धि के साथ-साथ अप्रमत्त भाव के अध्यवसाय भी प्रकट होने लगते हैं । अन्त में आत्मा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होती है । क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुई आत्मा की शक्ति के बारे में शास्त्रकार फ़रमाते हैं यदि एक आत्मा के कर्म दूसरी आत्मा में संक्रमण होने का विश्व विधान होता (जो असम्भव है) तो क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ आत्मा इतनी प्रबल शक्तिशाली होती कि वह अकेली ही संसार की सब आत्माओं को कर्ममुक्त बनाकर पूर्णानन्द का भोक्ता बना देती। .
ऐसी शक्ति व स्थिति 'दासोऽहं' के क्रम में से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए 'दा' अक्षर को हटाकर 'सोऽहं' भाव में आती हुई आत्मा की होती है । पीछे 'सोऽहं के सो' का भी त्याग कर परम शुद्ध वीतराग दशा में केवल 'अहं' चिदानन्द स्वरूप भाव ही रह जाता है। ___ आज प्रायः देखा जाता है कि उपासना क्रम का उल्लंघन होता है और उस के स्थान पर 'सो हं' व 'अहं' को ही प्रधानता दी रही है, परन्तु उससे उन्माद का ही पोषण होता है । प्रमाद और उन्माद दोनों बन्धु हैं जो इस आत्मा को चारों गतियों में भटकाते हैं । ऐसा कहा जा सकता है कि इस विपरीत क्रम द्वारा वे अपने मिथ्या 'सोऽहं' और 'अहं' भाव में मेरु को मस्तक से तोड़ने में प्रत्यनशील हाथी के समान चेष्टा कर रहे हैं अथवा पवन के प्रचंड वेग को हाथ की हथेली से रोकने का पुरुषार्थ कर रहे हैं । 'दासोऽहं' के क्रम का त्याग कर जिस प्रवृत्ति के लिए पुरुषार्थ किया जाता है वह एक ऐसा प्रयत्न है कि जिससे यह महान् परिश्रम से सुनार द्वारा तैयार किए गए आभूषण के ढांचे को लोहार के हथोड़े की एक ही चोट क्षण मात्र में तोड़ डालती है। अथवा बड़ी मेहनत से किसान के खड़े किए हुए घास के ढेर को अग्नि की एक चिंगारी जलाकर राख कर देती है। उसी प्रकार उन्माद व प्रमाद का एक ही आक्रमण आराधक की चिरकाल की कमाई को क्षणों में मिट्टी में मिला देता है।
सारांश यह है कि वर्तमान दूषमकाल में छठे गुणस्थानक तक की आत्माओं के लिए मेरी अल्पमति अनुसार 'दासोऽहं' की उपासना सर्वश्रेष्ठ हैं 'दासोऽहं की सार्थकता इसमें है कि स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य करके उसके परिपूर्ण पालन केलिए सदा प्रयत्नशील बना जावे। इस प्रकार दासोऽहं के भावपूर्वक किये गए पूजा और नमस्कार के साथ जितनी श्रद्धा समर्पण व भक्ति की वृद्धि होगी उतने ही प्रमाण में दर्शन शुद्धि (सम्यग्दर्शन की शुद्धि) की सिद्धि शीघ्रता से अनुभव होगी।
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