Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
180
उसमें गांठें पड़ जाती हैं, उसी प्रकार आत्मविकास की पद्धति या क्रम का विचार किए बिना यदि साधना की जाए तो सिद्धि तो दूर रही । परन्तु आत्मा किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाती है।
'दासोऽहं' की साधना करते हुए दासत्व-भाव की प्रधानता होती है । 'सोऽहं' में भावना करते हुए पुरुषार्थ की प्रधानता होती है । 'अहं' में भाव करते हुए समभाव की प्रधानता होती है।
जैसे बचपन में बड़ों का आधार, यौवन अवस्था में अपना स्वयं का आधार और वृद्ध अवस्था में समता का आधार जीवन को सुखी बनाता है। उसी प्रकार इस पंचमकाल में प्रमाद का प्रभाव अधिक होने से, शारीरिक बल क्षीण होने से, विषयकषायों की प्रबलता होने से, तथा अपने सामर्थ्य की कमी होने से — 'दासोऽहं' भाव द्वारा ही साधना सुलभ बन सकती है।
नमस्कार का भाव-यह 'दासोऽहं भाव की बुनियाद है। इसलिए वर्तमान काल में नमस्कार मंत्र को बालजीवों के लिए साधना हेतु परम आधारभूत कहा गया है। शास्त्रों में तो इस महामन्त्र को कल्पवृक्ष, कामकुम्भ और चिन्तामणि रत्न से बढ़कर माना गया है।
जैसे किसी भी कठिन धातु से कोई आकृति-अलंकार बनाने के लिए पहले उसे नरम बनाना पड़ता है, तत्पश्चात् ही उस पर सुन्दर कारीगरी की जा सकती है। इसी प्रकार वज्र से अधिक कठोर मन को 'नमः' में परिवर्तित करने के लिए 'दासोऽहं' भाव अत्यन्त आवश्यक है । चन्दन स्वभाव से शीतल होता है फिर भी रगड़ने से उस में गर्मी आ जाती है। इसी प्रकार मन को दुराराध्य माना जाता है परन्तु मन को नमस्कार महामन्त्र के 'नमः' की रटन द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है।
सभी दार्शनिकों, चिंतकों और विचारकों का एक ही निर्णय है कि मन की दिशा में परिवर्तन होने पर सब ऋद्धि-सिद्धियां सरलता पूर्वक हस्तगत हो जाती हैं। परन्तु मन की दिशा बदलने के लिए 'अरिहंत भागवन्तों के प्रति परम प्रीति, परम भक्ति और और समर्पण वृत्ति को खूब विकसित करना पड़ेगा।
नवकारमंत्र में प्रथम पद श्री अरिहंत-वस्तुत: पंचपरमेष्ठीमय है और दूसरे पद उनकी ही पूर्वोत्तर अवस्था के प्रतीक हैं । सारी शक्तियों और सिद्धियों का इसी एक ही पद में विश्लेषण किया जा सकता है । इसलिये शास्त्र कार फरमाते हैं कि कोई सिद्धि सम्पत्ति ऐश्वर्य, लब्धि और ऋद्धि की सरलता से प्राप्ति हेतु श्री अरिहंत पद की आराधना, भक्ति आवश्यक है।
श्री अरिहंत पद को नमन , पूजन, वन्दन करने से सब पापों का नाश होता है, पुण्यानुबन्धी पुण्य की वृद्धि होती है, रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन' सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चरित्र) की सिद्धि होती है और निकाचित कर्म भी निबंल हो जाते हैं । उनका ऐसा होना स्वभाव सिद्ध है श्री अरिहंत पद की ध्वनि के साथ ही अन्तःकरण में ऐसी छाप पड़नी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org