Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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182 दिगम्बर तेरहपंथ की अर्वाचीन पूजा पद्धति श्वेतांवरों और बीसपंथी दिगम्बरों की पूजा पद्धतियों का हम उल्लेख कर आये हैं अब यहां दिगम्बर तेरहपंथी तथा दिगम्बर काहनपंथियों की पूजा पद्धति का उल्लेख करेंगे । इस पंथ का प्रादुर्भाव मुगल सम्राट शाहजहां के राज्यकाल में विक्रम की सोलहवीं शती में हुआ। इसका उल्लेख हम कर चुके हैं। काहन पंथ का प्रादुर्भाव बीसवीं सदी में हुआ । ढुंढक पंथ के साधु काहन जी ने स्वपंथ का त्याग कर इस नवीन पंथ की सौराष्ट्र में स्थापना की। ये पंथ जिनेन्द्र देव की पूजा में जल, फल, फूल, नैवेद्य पूजा को सचित होने से हिंसा मानकर निषेध करते हैं और इनके स्थान पर फूलों के बदले केसर से रंगे चावल, लवंग, फलों के स्थान पर गरी गोले के छोटे-छोटे टुकड़े, नैवेद्य के स्थान पर गरी गोले के छोटे-छोटे टुकड़ों को पीलारंग कर तथा जल के भरे कलशों से जिनेन्द्रदेव के प्रक्षाल (स्नान) को हटा कर प्रतिदिन मात्र गीले कपड़े से प्रतिमा को पोंछ कर प्रक्षाल मान लेते हैं। पर सचित वस्तुओं के प्रयोग का निषेध करने पर भी इनकी पूजा में दसलाक्षणी में, प्रतिमा की प्रतिष्ठा के समय अभिषेक महोत्सव के अवसर पर जल से भरे अनेक बड़े-बड़े कलशों से जिनेन्द्र प्रतिमा का अभिषेक तथा प्रतिदिन धूप, दीप, आरती आदि सचित द्रव्यों से पूजा का विधान चालू है। अलंकारों और आंगी पूजा से भोग, परिग्रह और आडम्बर मान कर पूजन' पद्धति से एकदम बहिष्कार कर दिया । पर प्रतिष्ठा के अवसर पर पंचकल्याणक महोत्सवों का आयोजन कर तीर्थंकर प्रतिमा को वस्त्रालंकारों से सुसजित करके उसकी पूजा और आरती भी करते हैं।
दीप, धूप, आरती पूजा में धूप के धुएं तथा आरती और दीप की ज्योति से स्थावर-त्रस जीवों का प्राणवध भी होता है। पर फल, फूल, नैवेध पूजा में तो हिंसा इसलिए संभव नहीं कि जिनेन्द्र प्रतिमा की पूजा में उनको अपनी त्याग तथा अर्पण करने की भावना से फूलों को प्रभु चरणों पर तथा फलों को प्रभु के आगे रख दिया जाता है जिससे इन्हें पीड़ा-किलामना बिल्कुल नहीं होती। ये पंथ तीर्थंकर की मात्र केवली अवस्था को ही पूज्य मानते हैं । अन्य अवस्थाओं को अपूज्य मान कर उन अवस्थाओं की पूजाओं का निषेध करते हैं । अतः मात्र नग्न प्रतिमा की वैराग्य अवस्था को पूज्य मानकर पूजा करते हैं।
पर तीर्थंकर की प्रतिमा को रथ अथवा पालकी में बिठलाकर रथयात्रा (जलूस) निकालते हैं जबकि जनसाधु, अथवा तीर्थकर संसार त्यागकर जब अणगार मुनि की दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं तब से देहावसान तक न तो कभी स्नान ही करते हैं और न ही किसी वाहन की सवारी करते हैं। स्नान और वाहन की सवारी तो गृहस्थावस्था में ही होती हैं।
तीर्थंकर को केवलज्ञान होने के बाद सदा अष्टप्रातिहार्य होते है और यही केवली अवस्था की पूजा है । पर ये पंथ जिस प्रतिमा को पूज्य मानते हैं वह सर्वथा
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