Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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यद्वा वृतिस्तरति यज्जलमेष नून, मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥10॥
अर्थात् - हे जिनेश्वर ! आप भव्य प्राणियों के तारणहार कहलाते है; वह कैसे ? क्योंकि संसार सागर से तिरने वाले मानव आप श्री को अपने हृदय में धारण करते हैं, इसलिए उन्हें तारने वाले आप कैसे हो सकते हैं ? जैसे नाव अपने अंदर बैठने वाले को तिराकर ले जाती हैं, वैसे हो तिरने वाले प्राणी अपने हृदय में आपको धारण करके तिराकर ले जाते हैं । अतः तारणहार तो भव्य प्राणी कहे जा सकते हैं ? ऐसी शंका कर स्वयं स्तोत्रकार ही इसका समाधान करते हैं कि यह बांत योग्य है कि आप श्री ही तारक हैं- चमड़े की मशक जो पानी में तैरती है उसे तिराने में उसके अंदर रही हुई वायु का ही प्रभाव है । अर्थात् - जिस प्रकार चमड़े की मशक के अंदर रहा हुआ वायु उस मशक को तिराने वाला होता है यदि उसमें से वायु निकाल ली जावे तो मशक पानी में डूब जावेगी । उसी प्रकार भव्य प्राणियों के हृदय में रहे हुए आप ही उन भव्य प्राणियों के तारक हैं। यानी आपका ध्यान धरने से ही प्राणी संसार समुद्र को तिर सकते हैं ।
जिन प्रतिमा का प्रभाव इत्थं समाहितषियो विधिवज्जिनेन्द्र, सान्द्रोल्लसत्पुलककञ्चुकिताङ्ग भागाः । त्वद्विम्ब निर्मलमुखाम्बुजबद्धलक्ष्या; ये संस्तवं तव विभो रचयन्ति भव्याः ॥43॥
जन- नयन- कुमुद चन्द्र प्रभास्वराः स्वर्ग संपदो भुक्तत्या ।
ते विगलित-मल-निचया, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥ 44॥ युग्मम् ॥ अर्थात् -- हे जिनेश्वर ! लोगों के नेत्र रूपी चंद्र विकासी कमलों को विकस्वर करने में चंद्र समान आप स्थिर बुद्धि रखने वाले, अत्यन्त विकस्वर रोमांचित शरीर वाले और तुम्हारे बिम्ब (प्रतिमा - मूर्ति) के निर्मल मुख कमल में लक्ष्य रखने वाले भव्य प्राणी ऊपर कहे अनुसार विधि पूर्वक आपकी स्तुति करते हैं; वे देदीप्यमान स्वर्ग की सम्पति भोग कर शीघ्र ही सर्व कर्म मल को क्षय कर मोक्ष प्राप्त करते हैं । 5. जैनाचार्य श्री मानतुंग सूरि जी महाराज भोज के समय में हो गए हैं । वे अपने 'भक्तामर स्तोत्र' में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की स्तुति करते हुए उन की प्रतिमा के सामने क्या कहते हैं; ज़रा इस पर भी कुछ विचार करें ।
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आप विक्रम की दसवीं शताब्दी में हुए हैं और महावीर प्रभु के बीसवें पाट पर हुए हैं उस समय भी भरतक्षेत्र में कोई तीर्थंकर विराजमान नहीं थे । स्थापना निक्षेप की स्तुति रूप श्री ऋषभदेव का गुण कीर्तन किया है ।
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