Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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प्रकार तुम्हारे नाम मात्र से स्मरण से ही प्राणियों का भवभ्रमण दूर होता है। तो फिर आपकी स्तुति करने से भवभ्रमण दूर हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
2. द्रव्य निक्षेप (प्रभु के ध्यान का माहात्म्य) हृतिनि त्वयि विभो शिथिली-भवन्ति जन्तो क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः । सद्योभुजङ्गममया इव मध्यभाग
मभ्यागते बनशिखण्डिनि चन्दनस्य ॥8॥ अर्थात्-हे प्रभो ! जैसे वन का मोर जब चन्दन वन के मध्य भाग में आता है तब चन्दन वृक्ष से लिपटे हुए सर्पो के सब बंधन ढीले पड़ जाते हैं। वैसे जब आप हम भक्तजनों के हृदय में निवास करते हैं तो प्राणी के दृढ़ कर्मबन्धन शिथिल हो जाते हैं।
भावार्थ-यह जीव अनादिकाल से आठों कर्म रूपी सर्पो से जकड़ा हुआ है। पर जब भक्तजन हृदय रूपी वन मे मोर रूपी आपको ध्यान स्मरण-जाप द्वारा विराजमान करते हैं तो तत्काल ही वे दृढ़ कर्म बन्धन ढीले पढ़ जाते हैं।
सारांश यह है कि पार्श्वनाथ प्रभु इस समय सिद्धावस्था में है उनकी तीर्थंकर अवस्था को वर्तमान में मानकर उनको अपने हृदय में विराजमान करना द्रव्य निक्षेप द्वारा प्रभु की भक्ति आचार्य श्री ने की है।
3. स्थापना निक्षेप (प्रभु प्रतिमा के दर्शन का माहात्म्य) मुच्यत्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र रौद्ररुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरति तेजसि दृष्टमाने,
चौररिवाशुपशवः प्रपलायमानः ॥9॥ अर्थात्-हे जिनेश्वर ! तुम्हारे दर्शन करने मात्र से हो मनुष्य संकड़ों भयंकर उपद्रवों से तत्काल मुक्त हो जाता है। जैसे देदीप्यमान तेज वाले सूर्य राजा अथवा गोपाल को मात्र देखने से ही चोरों द्वारा पशु-गौएं आदि छोड़ दी जाती हैं।
(नोट) यह बात लक्ष्य में रखने की है कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के समय में कोई भी तीर्थंकर प्रमु विद्यमान नहीं थे। पार्श्वनाथ प्रभु को हुए लगभग एक हजार वर्ष हो चुके थे । इस लिए स्पष्ट है कि उन्होंने श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा के ही दर्शन कर उन्हें सम्बोधित किया हैं । यह उनके स्थापना निक्षेप की भक्ति-स्तुति है।
भाव निक्षेप (प्रभु के ध्यान का माहात्म्य) त्वं तारको जिन कथं भविनां न एव, त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः ।
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