Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
174
भक्तामर स्तोत्र से आचार्य मानतुंग द्वारा की गईश्री ऋषभदेव प्रभु की प्रतिमा के सामने स्तुति
श्री जिनेश्वर प्रभु के दर्शन का फल दृष्टा भवंतमनिमेष विलोकनीयं, नान्यत्र तोषनुपयाति जनस्य चक्षुः। पीत्वा पयः शशिकर युतिदुग्धसिन्धोः,
क्षारं जलं जलनिधेशितुं क इच्छेत् ॥11॥ अर्थात-हे प्रभो ! स्थिर दृष्टि में देखने योग्य ऐसे आप श्री के दर्शन के बाद मनुष्य की दृष्टि अन्य देवों को देखने से संतुष्ट नहीं होती । जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल कांतिवाले क्षीरसमुद्र का जल पी लेने के बाद लवणसमुद्र का खारा पानी कौन पीना चाहेगा?
___ भगवान के रूप का वर्णन
यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापिस्त्रिभुवनैक ललाभ भूत !। तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां,
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥12॥ अर्थात्-तीन भुवन में अद्वितीय अलंकार तुल्य हे प्रभो ! राग-द्वेष की कांति को नाश करने वाले अथवा शांतरस की कांति वाले परमाणुओं द्वारा जो आप का शरीर बना है; वे परमाण पृथ्वी पर उतने ही हैं। क्योंकि इस जगत में आप के समान किसी दूसरे का रूप दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि ऐसे परमाणु और होते तो आपके समान कोई दूसरा रूप भी दिखाई देता।
तीर्थंकर के मुख का वर्णन वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेवहारि, निःशेषनिजित जगत्रितयोपमानम् । बिम्बं कलंक मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥13॥ अर्थात् -हे सुन्दर मुख वाले प्रमो ! देवों, मनुष्यों तथा भुवनपतियों के नेत्रों को हरने वाले मनोहर तथा तीन जगत मे विद्यमान कमल, दर्पण, चन्द्र आदि की सब उपमाओं को जीतने वाला आपका मुख कहाँ और कलंक से मलिन तथा दिन में पलाश के पत्ते के समान फीका दिखलाई देने वाला चन्द्रमा का बिम्ब कहां? यानी यदि आप के मुख को चन्द्रमा की उपमा दे तो सर्वथा अयोग्य है । क्योंकि दोनों की तुलना हो सके यह बिल्कुल सम्भव नहीं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि "जिनप्रतिमा" आत्म साधना के लिए सम्यग्दष्टि भय प्राणी के लिए अचूक साधन है। इसके दर्शन और भक्ति तथा पूजन के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org