Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
120
रोगी प्राणी की चिकित्सा में उन निरपराध त्रस प्राणियों का वध भी संभव है । अथवा स्वच्छता को कायम रखने के लिये गंदगी आदि की सफाई करने कराने से भी निरपराध स प्राणियों का वध संभव है । इसलिये श्रावक के अहिंसा व्रत में सापेक्ष हिंसा का भी त्याग सम्भव नहीं है ।
सारांश यह है कि (1) स्थूल और सूक्ष्म हिंसा में से गृहस्थ को सूक्ष्म हिंसा का त्याग न होने से साधु की सम्पूर्ण अहिंसा में आधी का अभाव होने से यदि साधु की अहिंसा के बीस अंश माने जावें तो श्रावक की अहिंसा के दश अंश रहे अर्थात् 10/20 ( दस विवा) अहिंसा रही । ( 2 ) स्थूल अहिंसा के भी दो विभाग हैं - संकल्पजन्य और आरम्भजन्य | आरम्भजन्य हिंसा का त्याग नहीं होने से 5/20 (पांच विसवा ) अहिंसा रही । ( 3 ) संकल्प जन्य अहिंसा के भी सापराधी - निरपराधी दो विभाग होने से अपराधी की हिंसा का त्याग नहीं होने से (ढाई विसवा) अहिंसा रही । निरपराधी हिंसा के भी सापेक्ष-निरपेक्ष दो विभाग होने से गृहस्य को सापेक्ष हिंसा का त्याग न होने से (सवा विसवा) अहिंसा रही अथवा साधु की अहिंसा का सोलहवां भाग अहिंसा पालन करने का व्रत अवश्य धारण करना होता है । अत: श्रावक के अहिंसा अणुव्रत में निरपेक्ष निरपराध स्थूल (बस) जीवों की सकल्पपूर्वक हिसा के त्याग का विधान है । ऐसी अहिंसा के पालन में यदि श्रावक-श्राविका को प्रमादवश कोई स्खलना हो गई हो तो उस में अतिचार लगता है और जान बूझकर की हो तो व्रत भंग का दोष लगता है, इसपर से यही फलित होता है अथवा
(1) संकल्पी (2) आरंभी, (3) उद्योगी (4) विरोधी यह चार प्रकार की हिंसा है ।
(1) किसी निरपराधी प्राणी की जान बूझकर हिंसा करना संकल्पी हिंसा है । (2) घर, दुकान, खेत आदि के आरम्भ, समारंभ में रसोई आदि प्रवृत्तियों में, पूजा आदि में यत्नाचार ( सावधानी) रखने पर भी त्रस जीवों की जो हिंसा होती हैं वह आरम्भी हिंसा है । (3) द्रव्योपार्जन में जो तस जीवों की हिंसा होती है वह उद्योगी हिंसा है । (4) दुष्ट नराधम के आक्रमण से रक्षा के लिये उस का जो वध किया जाता है, वह विरोधी हिंसा है । इन चार प्रकार की हिंसा में से संकल्पी हिंसा तो गृहस्थ के लिये सर्वथा वर्ज्य है । उपर्युक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट है कि गृहस्थ के लिये इस अहिंसा अणुव्रत में श्री वीतराग - सर्वज्ञ- तीर्थंकर भगवन्तों ने कितनी दीर्घदृष्टि से सब प्रकार के लाभालाभ का सांगोपांग विचार कर मानव जीवन के लिये उपयोगी बनाया है । यहां एक दृष्टांत से इस व्रत की उपयोगिता बताकर हिंसा-अहिंसा के प्रकरण को समाप्त करेंगे।
दो प्रकार के अपराधी
एक नगर में एक गृहस्थ ब्राह्मण रहता था । वह नित्य प्रति धर्मानुष्ठान, यम, नियम, तप, जप, भगवद् पूजा, संध्या आदि करता था । उसे वेद, पुराण आदि सब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org