Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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यह तो हुआ पुष्प पूजा में आगम प्रमाण ।
(3) पूजा में पुष्प चढ़ाने से फूलों को बाधा-पीड़ा नहीं पहुंचती और न ही उनकी हिंसा होती है । परन्तु उनका रक्षण होकर उन्हें अभयदान मिलता है । क्योंकि यदि कोई धन्धाधारी उन फूलों को लेकर उनको पानी में डाल और आग पर चढ़ाकर अथवा खोलते हुए पानी में डालकर उसका शर्बत, अर्क, गुलाबजल, इत्र आदि बनाये अथवा गुलाब के फूलों को पीस कर उनकी गुलकन्द आदि बनावे तो उनकी हिंसा होगी यदि कोई गृहस्थ अपने उपभोग, बनाव-श्रृंगार के लिए ले-जावेगा तो वह फूलों को सुई से वेधकर माला, गजरे, कुंडल, वेणीबन्धन आदि बनाकर पहनेगा। संघ और मसल कर फेंक देगा, जो पैरों तले कुचला जाएगा। दम्पत्ति के सहवास में जब फूलों से श्रृंगार करेंगे, बिछोने में बिछाकर सोयेंगे। कमरे को सुवासित करने के लिये उनकी पंखड़ियों को तोड़ेगे। इस प्रकार ये उबाले, कुचले, मसले, वेधे, काटे, छांटे जाने से, धूप में रखने से बड़ी किलामना-पीड़ा-वेदना पूर्वक मारे जायेंगे। ऐसा करने वाले अवश्य हिंसा के भागी बनेंगे ।
परन्तु प्रभु पूजा में जो फूल माली से खरीदकर लाए जावेगे, पूजा करने वाला साधक उन्हें बड़े विवेक पूर्वक सावधानी से प्रभु के चरणों पर, मस्तक पर चढ़ाकर रख देगा। वहां ये फूल निर्भय होकर बिना किसी कष्ट और किलामना के प्रभु की भक्ति में स्थिरता से रहेंगे। वहां स्वयमेव ही अपनी आयु पूर्ण करके कुमला जावेंगे और शरीर को बिना किसी पीड़ा और कष्ट को छोड़ देंगे। प्रभु की पूजा के लिये फूलों की माला-हार आदि जो बनाए जाते हैं वे सभी फलों को गंथकर तैयार किए जाते हैं। फूलों के डंठलों को डोरे से बांध कर तैयार किए जाते हैं । उनको पिरोने में सुई का प्रयोग बिलकुल नहीं किया जाता। अतः इस प्रकार पुष्प पूजा में हिंसा सर्वथा असंभव है । तीर्थंकर जब साक्षात् विद्यमान थे तब उनके अतिशय के कारण फूलों को किलामना पीड़ा कष्ट बिकुल नहीं होते थे और जिन-प्रतिमा अचेतन होने से उसकी पूजा के काम में लाये जाने वाले फूलों को पीड़ा सम्भव न होने से पुष्प पूजा सर्वथा निर्दोष है।
(4) जिनका पूजा करने का नित्य नियम होता है यदि कहीं पर उन्हें जिनप्रतिमा आदि का साधन न मिले तो फूल में जिनेश्वर प्रभु की स्थापनाकर उसकी पूजा करके अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर सकते हैं।
(5) जब तीर्थंकर प्रभु स्वयं विद्यमान थे तब उनकी सचित्त फूलों से सदा भक्ति होती रही। यदि वह तीर्थंकर की भक्ति के लिए अनुचित होती, जिनाज्ञा विरुद्ध होती अथवा हिंसा-जन्य होती। तीर्थंकर प्रभु की आशातना, अवज्ञा सम्भव होती तो इस कृत्य का तीर्यकर प्रभु अवश्य निषेध कर देते किन्तु इस निषेध का न करना ही यह सिद्ध करता है कि पुष्पों से तीर्थंकर अथवा उनकी मूर्ति की पूजा निर्दोष है । तथा मुक्ति प्राप्ति का साधन है।
(6) यदि व्यवहार में भी देखा जावे तो पुष्पों द्वारा किसी व्यक्ति का सम्मान
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