Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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आजीवन पतिव्रता सिद्ध कर सके । मृतपति की मूर्ति, चित्र, फ़ोटो के सामने सच्चे हृदय से ऐसी भावना सदा-सर्वदा रखने से वह अपने शुद्ध पतिव्रत धर्म पालन करने में अवश्य सफल होगी; यह बात नि:संदेह है। इसी प्रकार यह बात भी निःसंदेह हे कि वीतरागसर्वज्ञ तीर्थंकर भगवन्त की प्रतिमा, चित्र, फ़ोटो की पूजा, उपासना द्वारा उनके गुणों का स्मरण करते हुए वैसे गुणवान बनने के दृढ़ संकल्प से, उनके समान बनने की "भावना से, वैसा आत्मकल्याणकारी आचरण करने के लिए यह भव्यात्मा अग्रसर होकर आचरण की सरलता और पवित्रा से अवश्य सर्व कर्मों को क्षय कर निर्वाण प्राप्त करने में सफल हो सकती है। अतः पति के चित्रादि से पुत्रप्राप्ति का तर्क शुद्ध नहीं परन्तु कूट कुतर्क मात्र है।
2. पत्थर की गाय -सिंह आदि को देखकर असली गाय-सिंह का बोध होता है। भूगोल-खगोल आदि के चित्रों को देखकर पृथ्वीतल तथा आकाशीय पदार्थों का बोध होता है। यह बात स्कूलों और कालेजों में पढ़ने वाले विद्यार्थी जानते हैं।
__ गौ का भक्त गाय के दूध, मूत्र, गोबर आदि पाने की भावना से उसकी उपासना नहीं करता । बछड़ा-बछड़ी पाने के लिए उसकी उपासना नहीं करता । वह तो गाय में माता की कल्पना करके उसके चरणों को स्पर्श करता है। इस बात को हम दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते हैं -
एक आदमी गाय को बेचने के लिए बाजार में लाया । 1-कसाई ने देखा कि उसके शरीर में मांस कितना हैं ? उसकी दृष्टि उसके मांस पर गयी । 2-चमार ने उस के चमड़े को देखकर उसका मूल्यांकन किया। 3-ग्वाले ने दूध को देखकर उसका मूल्य लगाया। गाय एक होने पर भी एक की दृष्टि मांस पर, दूसरे की चमड़े पर तथा तीसरे की दूध पर गई और उसी के अनुसार उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकार से गाय का मूल्यांकन किया । 4-चौथा व्यक्ति आया वह गाय माता का भक्त था। उसकी दृष्टि न मांस पर, न चमड़े पर और न दूध पर गई। उसे इस बात को जानने की इच्छा भी नहीं हुई कि वह बांझ है अथवा संतानोत्पत्ति की क्षमता वाली है। न मोटापे पर, न पतलेपन पर, न कद पर, न रंग, न बचपन, जवानी अथवा बुढ़ापे पर, न रोग पर, न स्वास्थ्य पर दृष्टि गई उसने तो गाय के आकार को देखकर उसकी महत्ता के विराट स्वरूप के दर्शन किए और भक्ति से उसके चरणों में सिर झुका दिया।
वैसे ही जिनप्रतिमा के द्वेषी प्रतिमा को देखते ही सटपटा जाते है । इन्हें वहां जड़ और पत्थर के सिवाय कुछ बोध नहीं रहता, जिससे वे द्वेष तथा आशातना के कसित भावों से पाप कर्म का बन्ध करके दुर्गति के भागी बनते हैं । किन्तु सम्यग्दृष्टि प्राणी तीर्थंकर की मूर्ति में तीर्थंकर के विराट स्वरूप का-अनन्त गुणों का चिंतनकर प्रभु भक्ति में मस्त हो जाता है, तल्लीन होकर तदात्म्य भाव में स्थिरता प्राप्तकर आत्म स्वरूप में रम जाता है और अन्त में सर्व कर्म क्षयकर शाश्वत सुख रूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
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