Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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में ही अधर्म का सेवन करने वाले बनते हैं अथवा अधर्म के सेवन को ही धर्म का कारण मानने वाले होते हैं।
(10) श्री जिनप्रतिमा पूजा आत्मभाव को विकसित करने वाली, सम्यक्त्व प्राप्ति तथा शुद्धि का कारण और अन्त में सर्वकर्म क्षय कर मुक्ति प्रदाता है। अतः हिंसा के नाम से देवपूजा से दूर भागना, दूसरों को इस से विमुख करना--यह भयावह अज्ञानता से भरपूर आत्मवंचना है । आत्मघातक दुस्साहस है ।
जिनप्रतिमा को न मानने से हानि(1) मति को न मानने के कारण बत्तीस सूत्रों के अतिरिक्त अन्य आगमों से, पूर्वधरों द्वारा रचित नियुक्ति, भाष्य, चूणि, टीकाओं आदि ज्ञान के समुद्र समान महाशास्त्रों से तथा उनके उत्तमोत्तम सद्बोधों से वञ्चित रहना पड़ा। एवं आगमों के सूत्रों की और ग्रन्थकर्ता गीतार्थ प्रामाणिक महापुरुषों को अप्रमाणिक मान कर ज्ञान और ज्ञानियों की आशातना का घोर पाप कर्म उपार्जन करने का अवसर प्राप्त करना पड़ा।
(2) बत्तीस आगमों के भी नियुक्ति, भाष्य, चुणि, टीकाओं को न मानकर और उनसे विपरीत स्वकपोलकल्पित (मनमानी) टीकाएँ और टब्बे आदि बनाकर स्व-पर को अनर्थ की भयंकर खाई में डूबने का कारण बना ।
(3) अन्य ग्रन्थों तथा 3 2 सूत्रों में भी जो मूर्तिपूजा विषयक पाठ है उन पाठों को उड़ाकर, अथवा उनके मनघडंत अर्थ करके अथवा उन पाठों के बदले मनमाने पाठों का प्रक्षेप करके सैंकड़ों मूल ग्रन्थकर्ताओं के अभिप्रायों के विरुद्ध उत्थल-पुथल व चोरी करनी पड़ती है।
(4) मूर्ति को न मानने से यथार्थ तीर्थ-भूमियों में गमन करना आदि स्वत: बन्द करने का समय आया। इससे तीर्थयात्रा से होनेवाले लाभों से अपने आपको वञ्चित रखना पड़ा। तीर्थयात्रा से होने वाले लाभ, संसारिक वृत्तियों की निवृत्ति, ब्रह्मचर्यादि धर्म पालन, देवपूजा, तथा शुभक्षेत्रों में द्रव्य व्यय आदि द्वारा जो पुण्योपार्जन आदि होता है उससे भी वञ्चित रहना पड़ा।
(5) जिनमन्दिर में न जाने से श्री जिनेन्द्र देव की द्रव्यपूजा छूट जाती है। प्रभु भक्ति में जो शुभ द्रव्य व्यय होना था तथा भगवान के समक्ष स्तुति, स्तोत्र, चैत्यवन्दनादि होने थे उन सब लाभों से वंचित होना पड़ता है।
(6) जो पुण्यात्माएँ जिनमन्दिर, तीर्थों आदि में प्रभुभक्ति के निमित्त जाती हैं उनकी निन्दा तथा टीकाटिप्पणी करने से क्लिष्ट पाप कर्मों का उपार्जन तथा बोधिदुर्लभता आदि महादोषों की प्राप्ति होती हैं।
(7) जिन-प्रतिमाओं, मन्दिरों, तीर्थों से विमुख होने से उन के स्वामित्व अधिकार से भी वंचित होना पड़ता है।
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