Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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जातोऽस्मि तेन जनबान्धव दुःखपात्रं,
यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशन्याः॥38॥ अर्थात्-हे लोक बन्धु लोक के हितकारक ! मैंने पहले किसी भी भव में आप का उपदेश भी सुना होगा, आपकी पूजा भी अवश्य की होगी और आप के दर्शन भी किये होंगे। परन्तु श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्ण भावना से चित्त में आपको धारण तो किया ही नहीं । यही कारण है कि सब कुछ करते हुए भी मैं दुःख का पान ही बना रहा हूं। कारण स्पष्ट है कि यदि सुनने, पूजा और दर्शन आदि करने की सब क्रियाएं भाव शून्य हों तो फलदायक होती ही नहीं । इसोलिए मेरी सब क्रियाएं निष्फल गई हैं ।
साक्षात् वीतराग सर्वज्ञ प्रभु से कुछ पाने के लिए गौतम स्वामी जैसे विनयवान श्रद्धालु बनने की आवश्यकता है और उनके समान भावना होने से श्रद्धालु उपासक उन से कुछ पाने की पात्रता प्राप्त कर सकता है।
परन्तु गोशाले और जमाली आदि जैसे उदंड द्वेषी निन्हव क्या पा सकते हैं वहां जाकर वे अपना पतन ही तो करेंगे, पाप के गर्त में पड़कर नरकगति के भागी ही तो बनेंगे, जिस प्रकार खोटे भावों वाला अथवा भावशून्य व्यक्ति साक्षात् जीवित तीर्थंकर के पास जाकर भी अपना पतन कर लेता है, वैसे ही मिथ्यादृष्टि, दूरभवि और अभवि भी अपना पतन ही करेंगे। शुद्ध भावों से जिनप्रतिमा की साक्षात् तीर्थकर प्रभु के समान उपासना, दर्शन, पूजन, भक्ति आदि करने से भव्य प्राणी मोक्ष तक पा सकता है। जो द्वेष करता है, जिनप्रतिमा का विरोधी होकर उत्थापन अथवा निन्दा करता है वह अपना पतन करता है, दूसरों को भी मिथ्या प्रलाप द्वारा भक्ति मार्ग से हटाकर पाप के गर्त में धकेलने का कारण बन कर स्व-पर को दुर्गति का भागी बनाता है । अतः इसमें सन्देह नहीं है कि जिनप्रतिमा को साक्षात् तीर्थकर मान कर शुभ भावों से भक्ति करने से उत्तम फल की प्राप्ति कर सकते हैं और अनूपम अलौकिक मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकते हैं।
जिन महानुभावों ने जिनप्रतिमा पूजन के गढ़ रहस्य को समझ लिया है वे तो संसार से सदा विरक्त रह कर पूजाभक्ति द्वारा सांसारिक सुख भोगों को पाने की लेशमात्र भी इच्छा नहीं रखते । उनकी भावना तो कर्मजन्य सब सुख-दुखों से मुक्त होकर शाश्वत सुख रूप आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करके मोक्ष पाने की रहती है । पाप और अन्याय से वे सदा दूर रहते हैं। ईश्वर के प्रति श्रद्धा, प्रेम और भक्ति, धर्म पर दृढ़ श्रद्धा, विश्वास तथा प्रतिमा में ईश्वरत्व की बुद्धि रखना उनका प्रधान ध्येय होता है। जिनप्रतिमा की भक्ति से सदाचार, शान्ति, सुख और समृद्धि प्राप्त होते हैं और मोक्ष तक भी प्राप्त होता है। इस बात में सन्देह का किंचिन्मान भी अवकाश नहीं है। कहा भी है-"मानो तो देव नहीं तो पत्थर ही है।" प्रभु मूर्ति सब कुछ देती है, उससे पाने की अपने में योग्यता भी चाहिए । व्यापार से धन, समृद्धि, मान, प्रतिष्ठा सब कुछ प्राप्त होते हैं । पर किसको? व्यापार कुशल बुद्धिमान को। मूर्ख जड़बुद्धि तो मूल
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