Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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कुएँ का दृष्टांत जानना । ऊपर के पाठ में भगवान श्रावक को पुष्पादि द्रव्यों से द्रव्य "पूजा करने का उपदेश देते हैं ।
" पूयाए कार्यवहो, परिकुट्ठो सो य नेव पुज्जाणं उवयारिणित्ति तो सा, परिसुद्धा कहणु होइ ति ॥ Hours forपूयाए, कायवहो जति वि होइउ कहि वि । तहवि तई परिसुद्धा, गिहीण कूवाहरण जोगा ॥ असदारंभपवत्ता, जं च गिही तेण तेसि विन्नेया । तन्निवित्तिफलच्चिय, एसा परिभावणीयामिणं ॥ उवगाराभावंमि वि, पुज्जाणं पूयगस्त उवगारो । मंतादिसरण - जलणाइ-सेवणे जह तहेहं पि ॥ देहादिणिमित्तं पिहु, जे कायवहंमि तह पट्ठेति । जिणपूया काय वहम्मि तेसिमपवत्तणं मोहो ॥'
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( आर्चार्य हरिभद्र सुरि ) अर्थात् -- पूजा में यद्यपि क्वचित कायवध होता है तो भी वह पूजा गृहस्थों लिए तो विशुद्ध ही होती है— कुएं के दृष्टान्त से ( कुएं का दृष्टांत इस प्रकार है) जल के अभाव से गांववाले दुःखी थे, उन लोगों ने किसी जलस्रोत वेत्ता को बुलाकर 'पूछा। उस ने भूमि की परीक्षा कर एक प्रदेश को बतलाकर कहा - इस स्थान पर
इतनी गहराई के नीचे जल निकलेगा । लोगों ने उत्तम समय देखकर वहाँ खोदना शुरू 'किया । खोदने में दिनों के दिन बीत गये, खोदने वाले थककर चकनाचूर हो गए, शरीर मिट्टी से लथपथ हो गए तो भी भावी सुख की आशा से वह खोदते ही चले गए बतलाई हुई गहराई तक खोद डाला और सचमुच उनकी आशा को पूर्ण करने वाला जलस्रोत प्रगट हुआ (लोगों के आनन्द का पार न रहा) उस शुद्ध निर्मल जल से लोग
हाए, थकान उतारी, शरीर पर लगे हुए कीचड़ को धोकर साफ किया, पीकर प्यास 'को बुझाया और सदा के लिए जलकष्ट दूर हुआ। इसी दृष्टान्त से पूजा करने वालों को सामान्य रूप से आरम्भ जन्य हिंसा रूप जो आश्रव लगता हैं' द्रव्य का खर्च करना पड़ता है। समय का योग देना पड़ता है किन्तु पूजा में भाव विशुद्धि और श्रद्धा श्रद्धाण की निर्मलता से जो लाभ मिलता है उसकी तुलना में उसमें व्यतीत किया हुआ समय, खर्च किया द्रव्य तन्निमित्तक सब कुछ भी गिनती में नहीं है ।
सारांश यह है कि - जैसे कुएं का पानी पवित्र, निर्मल होने से स्वयं भी पवित्र "है ओर सदा ताजा और स्वच्छ रहता है । दूसरे पदार्थों के मल को साफ करता है । वैसे ही पूजा करने वाले के भाव अप्रमत्त होने से सदा भाव शुद्धि जल के समान पवित्र है और पूजक की भाव शुद्धि होने से शुद्ध अध्यवसाय रूप पानी होने से अशुभ बन्ध रूप मल से आत्मा मलिन होता ही नहीं है । अतः पुष्पादि से जिनराज की पूजा करने से बढ़कर दूसरी दया कौन सी हो सकती हैं ? मतलब यह है कि जिनमन्दिर बनवाने से
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