Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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ही नहीं। यदि वह त्यागी भावों से ओत-प्रोत है तो वस्त्रों, अलंकारों तथा ठाठ-बाठ आडम्बर आदि के होते हुए भी उन वस्तुओं में उसकी आसक्ति न होने के कारण त्यागी है । क्योंकि उन द्रव्यों में उसका ममत्व भाव नहीं है।
4. दूसरा उदाहरण भी लीजिए-जब साधु का देहान्त हो जाता है तव उसके मुर्दे के सत्कार में जो आडम्बर आदि करते हो, तो क्या उसे भोगी मानोगे ? यही कहोगे न कि वह मुर्दा है उसे इस आडम्बर से क्या प्रयोजन ? यहां प्रश्न यह होता है कि साधु का दीक्षा से पहले तथा देहान्त के बाद जो कुछ भी ठाठ-बाठ करके उन्हें त्यागी ही मानते हो, तो तीर्थंकर प्रभु की भक्ति केलिए जिन द्रव्यों को साधक काम में लाता है उनसे तीर्थंकर में त्याग के अभाव का आरोप क्यों?
5.-चौमासे में आप संघ लेकर अथवा परिवार के साथ साधु-साध्वियों का दर्शन करने केलिए जाते हो, तो आपके आने-जाने में हिंसा होती है या नहीं? साधु तो वर्षा ऋतु (चौमासे) में इसलिए विहार नहीं करता कि विहार करने से जीवों की हिंसा होगी। अन्य ऋतुओं की अपेक्षा चौमासे में विशेष हिंसा सम्भव है । आपको साधु नियम दिलाते हैं कि हमारा दर्शन करने चौमासे में ज़रूर आना । तो जब आप उन का दर्शन करने जाते हैं उस समय आप में अथवा आपके गुरु में कोई अतिशय पैदा हो जाता है कि जिनसे जीवों की हिंसा न होती हो ? अथवा होती हो तो आपके गुरु के अतिशय से वे सीधे मोक्ष को पा जाते हैं ? यदि ऐसा नहीं है तो उस पाप का भागी कौन ? आप अथवा अपने दर्शनों का नियम कराने वाले आपके गुरु ? हिंसा तो प्रत्यक्ष है ही, फिर ऐसी हिंसाजनक प्रवृत्ति का साधु निषेध क्यों नहीं करते ? क्या वे आपको अपने दर्शनों का नियम दिलाकर हिंसा को प्रोत्साहन नहीं देते ? साधु की दीक्षा समय, उनके आने जाने के अवसर पर, उनके स्वागत आदि के लिए आपका आना जाना, उनके दर्शनों के लिए आना जाना, साधु के मुर्दे के दाह संस्कार के लिए जो कुछ भी आप करते हैं उसमें होने वाली हिंसा को धर्म मानते हो अथवा अधर्म ? यदि अधर्म है तो ऐसे पापजन्य कार्यों के लिए आपके साधु मना क्यों नहीं करते?
6-आश्चर्य की बात है कि प्रभू की पूजा में पाप और हिंसा मानने वाले स्वयं अपने गुरुओं के निमित्त होने वाली हिंसा को जान बूझकर करते हैं और उसमें दोष नहीं मानते और सदा करते ही जा रहे हैं और उनके गुरु भी ऐसे हिंसाजन्य कार्यों को प्रोत्साहन देते हैं जो उनके निमित से की जाती है।
7-तीर्थंकर प्रभु तो केवलज्ञान होने के बाद रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर बैठ कर समवसरण में बारह पर्षदाओं के सामने धर्मदेशना देते हैं। नव (9) स्वर्ण कमलों पर उनका विहार होता है। छत्र, चामर, ध्वजा, देवदुन्दुभि, घुटनों तक सचित पुष्पों की वृष्टि आदि आठ प्रातिहार्य, चौतीस अतिशयों सहित सदा विचरते हुए भी वे महान त्यागी, महान योगी और महान अहिंसक हैं । ऐसा जैनागम फरमाते हैं। इतने आडम्बर के साथ भी भोगी नहीं होते। तो पूजा की सामग्री चढ़ाने मान से भोगी कैसे बन
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